हम संसार में संसार के न होकर जीएं , यही आध्यात्मिकजीवन है। बहुत कठिन है कीचड़ में रह कर अनछुए कमलजैसा जीवन जीना। बहुत जटिल है कान के होने पर भीशब्दों को न सुनना , आंख के होने पर भी दृश्य को न देखना ,नाक के होने पर भी गंध को न सूंघना , जीभ के होने पर भीस्वाद को न चखना , त्वचा के होने पर भी स्पर्श न करना।सचमुच यह असंभव सी जीवनशैली है। पर धर्मग्रंथों में यहीबताया गया है। कैसे संभव है ऐसी जीवनशैली ?
आध्यात्मिक दृष्टि से इस समस्या का समाधान यही है कि सब कुछ करें किंतु बिना प्रियता - अप्रियता के भाव लिए।क्योंकि प्रतिक्रिया हमें अपने स्वभाव से दूर ले जाती है।
सांसारिक जीवन में हम नाना प्रकार के प्रलोभनों से घिरे रहते हैं। हमारे चारों ओर मोह - माया का जाल बिछारहता है। भौतिक पदार्थों का आकर्षण इतना प्रबल होता है कि हम निरंतर उनका संचय करते जाते हैं , उनके जालमें बंधते जाते हैं। पदार्थ किसी को नहीं बांधता , हम ही बेजान पदार्थों के सम्मोहन में बंध जाते हैं।
यह आसक्ति ही है कि दौलत बैंक में होती है और उसका नशा आदमी के भीतर। हाल ही में मृत्यु से जूझते एक साधुको देखा , जिसके हाथ अंतिम सांसें गिनते हुए कुछ टटोल रहे थे। पता चला कि वह अपनी पोटली खोज रहा हैजिसमें उसकी जमा - पूंजी थी। परिग्रह की माया ही कुछ ऐसी है , जो किसी को नहीं छोड़ती।
मनुष्य का मन बड़ा चंचल है। वह नित्य नई मांगें करता है। इनका कभी अंत नहीं होता। एक मांग पूरी हुई नहीं किदूसरी सामने आ जाती है। घर में चीजों की ढेर लग जाती है। उनमें न जाने कितनी चीजें ऐसी होती हैं , जो सालोंहमारे काम नहीं आतीं। रोज फैशन बदलता है और आज हम जिस चीज को लाते हैं , वह कुछ ही समय में पुरानीपड़ जाती है। उसे हम एक ओर डाल देते हैं और नए फैशन की चीज ले आते हैं। कुछ समय बाद उसके साथ भीवैसा ही होता है। हम यह कभी नहीं सोचते कि जिसकी हमें आवश्यकता नहीं है , उसे जब हम संग्रहीत करते हैं तोउस व्यक्ति का हक छीनते हैं , जिसको उसकी आवश्यकता है।
प्रकृति का नियम ऐसा है कि वह जिसे जन्म देती है , उसे दो हाथ भी देती है। दोनों हाथों से कर्म करो , रोजकमाओ , रोज खाओ। संग्रह का अर्थ होता है , दूसरे को उससे वंचित करना। आज बीस - पच्चीस प्रतिशत लोगों नेअधिकांश साधन अपनी मुट्ठी में बंद कर रखे हैं। इसी से हम विषमता के दुष्चक्र में फंसे हैं। जमाव अभाव का जनकहोता है और इसी से हिंसा , आतंक , विद्रोह और शोषण जैसी स्थितियां पैदा होती हैं। आज की अशांति औरअराजकता का मूल कारण परिग्रह ही है।
दुनिया में ज्यादातर लोग आज भौतिक मूल्यों के उपासक बन गए हैं , और जीवन के धर्म को भूल गए हैं। उनकीइस उपासना ने दुनिया के बाहरी जगत को बड़ा लुभावना और आकर्षक बना दिया है। इस आपाधापी में हम सुखका आंतरिक सौंदर्य भूल गए हैं।
संत एकनाथ ने कहा है कि धन जोड़कर भक्ति का दिखावा करने से कोई लाभ नहीं , क्योंकि ऐसा करने से मन मेंवासना और भी बढ़ जाएगी। जिनका चित्त वासना में फंसा हुआ है , उन्हें अंतरात्मा के दर्शन कैसे हो सकते हैं ?महात्मा गांधी ने प्रेमा बहन को एक पत्र लिखा , जो लोग कृष्ण - कृष्ण कहते हैं वे सब उनके पुजारी नहीं होते। जोउनका काम करते हैं , वे ही पुजारी हैं। रोटी - रोटी कहने से पेट नहीं भरता , रोटी खाने से भरता है। इसी तरहवास्तविक सुख पाने के लिए भी भक्ति यानी साधना की ओर प्रवृत्त होना पड़ता है।
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