Thursday, July 19, 2012

धर्म तत्त्व का दर्शन एवं मर्म

संसार में सभी प्रकार के मनुष्य भरे पड़े हैं । उनका वर्गीकरण मोटे रूप में इस प्रकार किया जा सकता है - सज्जन, दुःखी, समुन्नत और दुर्जन । इन सबसे व्यवहार भी तद्‌नुरूप ही करना होता है । सभी से एक जैसा व्यवहार नहीं हो सकता ।

योगदर्शन में एक सूत्र आता है । मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा । इसमें व्यक्ति के अनुरूप व्यवहार करने की आवश्यकता एवं उपयोगिता समझाई गई है ।
सज्जनों के साथ मित्रता करनी चाहिए । ताकि उनके सद्‌गुणों का प्रभाव अपने ऊपर भी पड़े और समयानुरूप सद्‌व्यवहार किये जाने की भी अपेक्षा रहे ।
दुःखी लोगों के, पिछड़ों के प्रति करुणा भाव रखा जाय और उनकी सेवा-सहायता करने, संकटों से उबारने की चेष्टा चल पड़े । कम से कम सहानुभूति प्रकट करने, धैर्य बँधाने-उबरने का मार्ग बताने का प्रयत्न तो किया ही जाना चाहिए । जो सफल-समुन्नत हैं उनको देखकर प्रसन्न हुआ जाय । उन्नतिशीलों को इतना उपहार तो मिलना ही चाहिए कि उनके पुरुषार्थ एवं कौशल की प्रशंसा हो, प्रोत्साहन मिले ।
इससे दूसरों को भी उत्कर्ष की प्रेरणा मिलती है । दुष्ट-दुर्जनों से सदा लड़ना तो सम्भव नहीं हो सकता । रास्ता चलते किससे झगड़ा किया जाय और किस प्रकार सुधारा तथा ठिकाने लाया जाय, इसलिए उनकी उपेक्षा की जाय । कम से कम अपने साथ किये दुर्व्यवहार की तो उपेक्षा की ही जा सकती है, ताकि जितना समय बदला लेने, नीचा दिखाने में लगे, उसे बचाकर किसी उपयोगी कार्य में लगाया जा सके । इतने पर भी इतना तो ध्यान रखना चाहिए कि उन्हें असहयोग, विरोध और संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होने का भय तो दिखाया जाय, अन्यथा उनको निर्विरोध की स्थिति में अधिक दुस्साहस दिखाने का अवसर मिलता है । उपेक्षा इसी सीमा तक ही होनी चाहिए, जिससे दुष्टों को हौसला बढ़ने न पाये।
व्यक्ति के स्तर अनुरूप व्यवहार करना ही कर्म-कौशल है, जिसे गीता में भगवान्‌ ने योग का ही एक प्रकार कहा है । व्यवहार कुशलता के आधार पर व्यक्तियों से भिन्न व्यवहार करने की बात इसलिए कहनी पड़ी कि तत्त्वदर्शन में कई स्थानों पर ऐसा उल्लेख आता है कि सबमें एक ही आत्मा है, इसलिए समदर्शी होना चाहिए और सबसे सद्‌-व्यवहार करना चाहिए । ''आत्मवत्‌ सर्वभूतेषु'' की मान्यता विचार-बुद्धि तक ही सीमित रहने योग्य है । उसे व्यवहार में समान रूप से प्रयुक्त नहीं किया जा सकता । व्यवहार में जाने पर तो बड़ी अटपटी स्थिति हो जायेगी । सम्मानित गुरुजन और दुष्ट-दुरात्मा एक ही मंच पर बिठाये जायेंगे और उनकी समान रूप से पूजा-आरती की जायगी अथवा दोनों की उपेक्षा-भर्त्सना की जायेगी तो यह व्यवहार सर्वथा अटपटा हो जायेगा । उसका दुष्परिणाम ही होगा । दर्शन दृष्टिकोण तक सीमित है, व्यवहार लोकाचार से सम्बन्धित, इसलिए दोनों के बीच का अन्तर औचित्य का सर्मथन करते हुए अनौचित्य का विरोध भी करना चाहिए । भैंसे को डन्डे के बल पर चलाया जाता है किन्तु घोड़ा लगाम का इशारा करने पर ही दौड़ने लगता है, यह प्रकृति की भिन्नता है । उसी के अनुरूप व्यवहार का औचित्य भी है । ऐसा भी हो सकता है कि आवश्यकतानुसार व्यवहार में साम, दाम, दण्ड, भेद की चतुरता का समावेश किया जाय । जहाँ एक से काम न चलता हो, वहाँ दूसरे-तीसरे की नीति अपनाई जाय । भावना हमारी सुधार की है । व्यक्ति से नहीं अनीति से घृणा करो और डाक्टर के आपरेशन जैसी कठोरता को भी नीति के अर्न्तगत ही समझें, तो वह समन्वित व्यवहार सभी के लिए श्रेयस्कर हो सकता है ।
-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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