Sunday, April 21, 2013

मुक्ति

अनन्त आवरणों में बन्धा हुआ जीव मुक्ति की कामना करे, छटपटाए यह तो समझ में आता है, किन्तु मुक्त व्यक्ति पहले स्वयं को बान्धे, बान्धता ही चला जाए और साथ-साथ मुक्ति की कामना करता रहे, यह समझ में नहीं आता। यह आज के मानव की तस्वीर है, जो यह सिद्ध कर रही है कि मानव-देह सृष्टि के लिए अति विशिष्ट योनि है। 

मानव की स्वतंत्र बुद्धि, शरीर की स्वतंत्रता और ज्ञान का अहंकार ही सृष्टि की अन्य योनियों के विकास एवं उनकी निरन्तरता के लिए उत्तरदायी है। वही अपने कर्म-फलों के अनुरूप विभिन्न योनियों को प्राप्त होता रहा है। अन्य योनियों को, जिसमें देवयोनि भी सम्मिलित हैं, भोग योनियां कहा है। वे अपना नया कर्म करने को स्वतंत्र नहीं हैं। यही मानव योनि की विशेषता है।

मानव देह भी कर्म-फल के रूप में ही प्राप्त होती है। इसमें व्यक्ति पुराने कर्मो के फल भी भोगता है और नए कर्म भी अर्जित करता है। विद्या और अविद्या ही कर्मो का आधार होता है। ज्ञान और कर्म के पर्याय हैं। जब जीवन की सारी गतिविधियां अन्नमय, प्राणमय और मनोमय कोश के भीतर चलती हैं, तब उनको कर्म कहते हैं। 

जब इनका कार्य क्षेत्र मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश होता है, तब ज्ञान या विद्या के रूप में जाना जाता है। कर्म के साथ बन्धन का सीधा सम्बन्ध है और विद्या मुक्ति का मार्ग है। आत्मा के पास ये दो ही विकल्प हैं।

बन्धन के मूल में अहंकार रहता है। इसका केन्द्र अहंकृति है। इसी के अनुरूप प्रकृति होती है। प्रकृति का प्रतिबिम्ब आकृति होती है। जैसे-जैसे प्रकृति बदलती जाती है, वैसे-वैसे ही अगले जन्मों की आकृति तय होती जाती है। अन्त समय जब व्यक्ति देहातीत होकर समाधि ग्रहण करता है, तब सभी आकृतियों से मुक्त हो जाता है। कालातीत हो जाती है।

व्यक्ति का अहंकार अपने से कमजोर व्यक्ति के अधिकारों का हनन या अतिक्रमण करता रहता है। इसी क्रम में वह स्वयं को बन्धनों में जकड़ता ही चला जाता है। घर में एक नौकर रखकर हम सोचते हैं कि बहुत कुछ हल्के हो गए। होता बिल्कुल उल्टा है। हम स्वयं उससे बन्ध जाते हैं। हर पल उसके कार्यो पर ही आंखें टिकी रहती हैं। उसकी भाषा एवं उसके व्यवहार की चर्चा, उसके अज्ञान और अनाड़ीपन की चर्चा हमारे जीवन का बड़ा हिस्सा घेर लेती है। 

इतनी चर्चा न तो पति-पत्नी एक दूसरे की करते हैं। न ही बच्चों के बारे में एक-एक शब्द का आकलन होता है। बल्कि नौकर की चर्चा से स्वामी का अभिमान ही बढ़ता जाता है। उसकी/ उनकी भाषा में भी हल्कापन प्रवेश कर जाता है। नौकर नहीं हो तो स्वामी कैसा? अहंकार किसका? अज्ञान का आग्रह रहता है कि कर्म योग से बाहर रहना ही समृद्धि का प्रमाण-पत्र है।

अहंकार ही राग-द्वेष का सूत्रधार है। आसक्ति आंखों पर चढ़ी पट्टी है। खुली आंखों पर। जीवन के सारे सम्बन्ध ही बन्ध हैं। सम्+बन्ध। जन्म लिया है तो समाज के बन्ध भी रहेंगे। हालांकि, प्रकृति में कोई बन्ध नहीं है। हम अपने ही कर्म बन्धनों को प्रकृति का नाम दे देते हैं। जैसे कि शादियां तो स्वर्ग में ही तय हो जाती हंै। जैसे कि स्वर्ग हमको बान्धना चाहता हो।

या "शादी तो सात जन्म साथ रहने का मार्ग है।" साथ ही यह भी कहते हैं कि यह तो हमारा सातवां जन्म है। गले तक भर गए हैं, अब मुक्त होना चाहते हैं। ऎसा बन्धन आगे और नहीं चाहिए। सच पूछो तो यही मुक्ति द्वार है। इतनी विरक्ति हो जाना, कि पीछे मुड़कर देखने की इच्छा भी मर जाए, ग्रन्थि बंधन के खुलने की शुरूआत है। कितनी शक्ति लगाई होगी दोनों ने, दूर होने के लिए। कितने आरोप जड़े होंगे, कितना अविश्वास जताया होगा, अपने बन्धन में! कुछ तानों की नित्य बौछार भी साथ बनी रहती है, ताकि स्मृतियां भी उसको लौटा न लाएं। ये कैसा मुक्ति बोध! 

बन्धन तो इच्छा का नाम है। मुक्त हो पाना कैसे संभव है। इच्छा के साथ ही मन पैदा हो जाता है। मन के होते ही विद्या-अविद्या के मार्ग सामने आ जाते हैं। हर सम्बन्ध को सामने देखकर कोई न कोई कामना-भावना मन में उठने लगती है। इस बन्धन से मुक्ति, हर ऎसे बन्धन से मुक्ति, जिनको देखकर मन प्रसन्न होता है, उनके बन्धन से भी मुक्ति। 

हम जिन पर रौब मारते हैं, आदेश देकर जिनकी स्वतंत्रता छीनते हैं, उनसे भी मुक्ति। आखिर यहां भी हम स्वयं को उनका अधिकारी ही मानते हैं। कोई भी कामना जब धारणा बन जाती है, संकल्प बनकर जीवन का अंग बन जाती है, तब उससे मुक्त होना और भी कठिन हो जाता है। जिन-जिन सम्बन्धों के रूप में, प्रेम या घृणा में अपने मन की सिलाई कर ली जाए, संयोग-मिलन-बिछोह पर भीतर आन्दोलन होते रहे हैं, उनसे तो कैसी मुक्ति!

कितना दुलार करते हैं हम शरीर को। पूरी उम्र की मेहनत की कमाई खर्चते हैं, जिस शरीर के सुख और आराम के लिए, मौज-मस्ती के लिए, मनोरंजन और व्यसनों के लिए, जिसको स्वस्थ रखने के लिए, छोड़ दे उसका ख्याल? जो करता है प्रेम अनेक को और अनेक करते हों प्रेम जिसको, जिसका स्पर्श मात्र पैदा कर देता है स्पन्दन दिलों में, जिसके भीतर बैठा हूं मैं स्वयं और खो जाऊंगा उसके बाद, उससे मुक्ति का अर्थ? जिन श्वासों के सहारे मैं जिन्दा हूं, मेरा शरीर खड़ा है, मैं पृथ्वी और सूर्य से निरन्तर जुड़ा हुआ हूं, मेरे मन में कामना पैदा होती है, उनसे मुक्त होने की बात मन में उठ भी कैसे सकती है।

बन्धन ही निर्माण है। जोड़ना है। धन है-अमानत है-परिणाम है। इसी के लिए तो व्यक्ति जीता है। चिनाई को ही बन्ध कहते हैं। चाहें शरीर में पंच महाभूतों की हो, विचारों की हो अथवा भावना की। विचारों को छोड़ पाना तो बहुत ही कठिन है। व्यक्ति इन्हीं के सहारे आदान-प्रदान करता है, संवाद करता है, समाज में अपनी पहचान बनाता है। सबसे महžवपूर्ण बात यह है कि वह अपने अहंकार की तुष्टि करता है। जीवन के उपक्रम साध्य करता है।

विचारों के माध्यम से ही शब्द-ब्रह्म की प्रतिष्ठा होती है। उपासना और अनुष्ठान होते हैं। मंत्र शक्ति से जुड़ता है। अपने इष्ट की आराधना करता है। भावी सपने बुनता है। धर्म और अर्थ के क्षेत्र में मोक्ष की तलाश करता रहता है। तब इस के मानसिक स्वरूप से विच्छेद कर पाना साक्षात् मृत्यु ही है। वैसे तो चेतना के जागरण बिना भी जीवन तो मृत्यु ही है। चेतना का जागरण होता है संकल्प से, विद्या से। यही मुक्ति मार्ग का पहला सोपान है। यहीं से ऊध्र्व यात्रा शुरू होती है। 

विद्या के धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऎश्वर्य से अविद्या, अस्मिता, आसक्ति, अभिनिवेश से मुक्ति मिलती है। शरीर की अनावश्यक क्रियाओं में ठहराव आता है। श्वास लयबद्ध होने लगती है। मन का बाहरी सम्बन्ध भी घटने लगता है। इन्द्रियां भीतर मुड़ने को तत्पर रहती हैं। इसका अर्थ यही है कि शरीर का मोह छूटने लगता है। सौन्दर्य और स्वास्थ्य से जुड़े प्रश्न गौण होने लगते हैं। तब श्वास भी स्वत: ही मन्द पड़ने लगती है। मुक्त होने का यह प्रथम प्रयास है। साथ ही यह भी निश्चित है कि जब तक प्रयास है, हम मुक्त नहीं है। मन शरीर एवं बुद्धि से बन्धा है। प्रयास रहित सहजता ही मुक्ति है। 

शरीर के साथ ही इससे जुडे सम्बन्धों का संयोग भी विदा होने लगता है। वास्तव में तो व्यक्ति अपना यात्रा पथ देखने लग जाता है। उसका भावी लक्ष्य मुखरित हो जाता है। अतीत भी स्पष्ट हो जाता है। तब एक संकल्प का उदय होता है अथवा पुराने को ही बार-बार दोहराया जाता है। एक-एक बन्धन को समझता जाता है। समझ लेना ही ग्रन्थि मोचन है। जैसे रस्सी में लगी गांठ। उसको समझते ही बन्धन खुल जाता है।

मुक्ति का मार्ग द्वन्द्व भरा है। अनेक कामनाएं बाधा बनती हैं। अधूरी और दबी हुई कामनाएं आमतौर पर विस्फोटक होती हैं। व्यसन-वासनाएं जोर से चिपके रहते हैं। मानो इनके हटने से चमड़ी ही उतर जाएगी। देवासुर संग्राम ही है। मन के प्रवाह पर अंकुश लगाना, कामनाओं से बाहर निकल जाना इन्द्र से युद्ध करना है। इसीलिए इन्द्रिय निग्रह महžवपूर्ण है। किन्तु एक बार मुक्ति की ठान ले तो यही इन्द्र व्यक्ति को सूर्य तक पहुंचा देता है।

गुलाब कोठारी
लेखक पत्रिका समूह के प्रधान संपादक हैं

No comments:

Post a Comment