Monday, May 16, 2011

नियमित सत्संग


रमेश भाई ओझा।। 

ईश्वर की भक्ति में एक समय ऐसा आता है, जब साधक साधना की इतनी ऊंचाई पर पहुंच जाता है कि वह विदेह हो जाता है। उसे अपनी अवस्था का अहसास नहीं रहता। वह जिस हाल में होता है, उसी में प्रभु का स्मरण करता रहता है। 


पर साधक की साधना में उसे विदेह करने वाला क्षण कैसे आता है? वह आता है नियमित सत्संग से। इस बात को सदैव ध्यान रखना कि जहां सत्संग है, वहां सुमति है। और जहां सुमति है वहां संपत्ति है। सुमति सत्संग से ही मिलेगी। सत्संग से ही हम जान पाते हैं कि यज्ञ के अतिरिक्त अन्य कर्म मनुष्य को बांधते हैं। जब फलासक्ति को छोड़कर भगवान के लिए कर्म करते हैं और उन्हें ईश्वर को ही अर्पित करते हैं, तब हम में सुमति जगती है। ये तीनों बातें ईश्वर के प्रति प्रेम रखने के कारण जीव में प्रकट होती हैं। 

केवट ने भगवान राम को दंडवत प्रणाम किया और अपनी नाव से उन्हें नदी के पार ले गए। नदी पार कराने के बाद केवट ने उनसे अपने श्रम की कीमत नहीं ली। बल्कि शीश नवाकर कहा, नाथ! आज मैं काहू न पावा। यानी केवट को इसके बदले में कुछ नहीं चाहिए। 

जीव जिससे प्रेम करता है, उसकी सिर्फ प्रसन्नता चाहता है। अगर प्रेम नहीं है तो कोई भी कर्म मजदूरी माना जाएगा और उसका मूल्य मांगा जाएगा। भक्ति और प्रेम में कर्म मजदूरी नहीं होता। बल्कि इस भाव से जो कर्म किया जाता है और उससे दूसरों को जो सुख मिलता है, उसमें तुम सुखी होते हो। 

इसलिए शास्त्रों में कहा गया है कि शास्त्र और विधि के अनुसार कर्म करो। रामकथा मुख्यत: विधिरूप कर्म सिखाती है। रामायण असल में एक तरह का प्रयोगशास्त्र है। उससे स्पष्ट होता है कि राम ने धर्म को जीया। जीवन भर वही किया जो शास्त्रों के अनुसार सही होता है। इसलिए वही कर्म करो जो शास्त्र कहते हैं। ऐसा करेंगे तो सत्संग हमारी मति(बुद्धि) को सुमति बनाएगा। और जब सुमति से प्रेरित होकर कोई व्यक्ति अच्छे कार्य करेगा यानी सत्कर्म रूपी हल चलाएगा तो भक्ति रूपी सीता प्रकट होंगी। 

जब सीता प्रकट हुईं तो क्या हुआ था? तब भगवान स्वयं आए, उन्होंने शिव का धनुष भंग किया और सीता ने उन्हें वर लिया। ऐसी कथा है कि सीताजी ने एक बार दाएं हाथ से शिव का धनुष उठाया और उसके नीचे की जमीन बाएं हाथ से लीप दी। राजा जनक को बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह कैसे हुआ? उन्होंने सोचा कि सीता के रूप में मेरे घर में कोई शक्ति प्रकट हुई है। वह धनुष तो और कोई नहीं उठा सकता। राजा जनक ने समझ लिया कि यह तो परम शक्ति हैं, उन्हें उनके योग्य वर को सौंपना होगा। ऐसा सोचकर उन्होंने घोषणा की कि जो यह धनुष उठाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ाएगा, सीता उसी का वरण करेंगी। राम ने धनुष तोड़ा तो उससे यह साबित हुआ कि वही उस शक्ति के स्वामी हैं। ऐसा जानकर सीता ने राम के गले में वरमाला डाल दी। 

सीता तो भक्ति हैं। वह सदैव श्रीराम की सेवा में रहना चाहती हैं। वह वन में भी राम के संग चलीं। सब दुख सहे लेकिन राम का संग नहीं छोड़ा। यह है भक्ति। भक्त की भी यही भूमिका है कि वह भगवान से कुछ नहीं चाहता, वह सिर्फ भगवान को चाहता है। 

राम के पूर्व भी रावण को परास्त करने वाली शक्तियां थीं। सहसार्जुन ने रावण को परास्त किया था। बाली छह महीने तक रावण को कांख में दबाकर घूमते रहे थे। तो राम क्या रावण का ही केवल वध करने के लिए इस धरती पर आए थे? नहीं, वह तो जन कल्याण के लिए आए थे। जिसके केवल भृकुटि विलास में अनेक ब्रह्मांड जन्मते और नष्ट होते हैं, उसके लिए रावण को मारना क्या कठिन था? भगवान केवल संतों और संत स्वभाव वाले लोगों की रक्षा के लिए आए थे। महाकवि तुलसी ने कहा है- विप्र, धेनु, सुर, संतहित। लीन्ह मनुज अवतार। 


प्रस्तुति : सुभाष चंद शर्मा 

No comments:

Post a Comment