Tuesday, December 18, 2012

ईश्वर की प्रार्थना


ईश्वर की प्रार्थना की शक्ति के महत्व को सभी धर्मों के अलावा विज्ञान ने भी स्वीकार किया है, लेकिन हिंदू प्रार्थना को छोड़कर सब कुछ करता है। जैसे- पूजा, आरती, भजन, कीर्तन, यज्ञ आदि। आप तर्क दे सकते हैं कि यह सभी ईश्वर प्रार्थना के रूप ही तो हैं, लेकिन सभी तर्क प्रार्थना के सच को छिपाने से ज्यादा कुछ नहीं।

हिंदू प्रार्थना खो गई है, अब सिर्फ पूजा-पाठ, आरती और यज्ञ का ही प्रचलन है। वैदिकजन पहले प्रार्थना करते थे, क्योंकि वह उसकी शक्ति को पहचानते थे। अकेले और समूह में खड़े होकर की गई प्रार्थना में बल होता है। इस प्रार्थना को संध्याकाल में किया जाता था। इसे ही संध्या वंदन कहा जाता था। संध्या वंदन को संध्योपासना भी कहते हैं।

क्या है संध्याकाल?
'सूर्य और तारों से रहित दिन-रात की संधि को तत्वदर्शी मुनियों ने संध्याकाल माना है।'-आचार भूषण-89 

वैसे संधि पांच-आठ वक्त की होती है, लेकिन प्रात:काल और संध्‍याकाल- उक्त दो समय की संधि प्रमुख है। अर्थात सूर्य उदय और अस्त के समय। इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है।

संधिकाल में ही संध्या वंदन किया जाता है। वेदज्ञ और ईश्‍वरपरायण लोग संधिकाल में प्रार्थना करते हैं। ज्ञानीजन इस समय ध्‍यान करते हैं। भक्तजन कीर्तन करते हैं। पुराणिक लोग देवमूर्ति के समक्ष इस समय पूजा या आरती करते हैं।

ईश्वर की प्रार्थना करें : संधिकाल में की जाने वाली प्रार्थना को संध्या वंदन उपासना, आराधना भी कह सकते हैं। इसमें निराकार ईश्वर के प्रति कृतज्ञता और समर्पण का भाव व्यक्त किया जाता है। इसमें भजन या कीर्तन नहीं किया जाता। इसमें पूजा या आरती भी नहीं की जाती। सभी तरह की आराधना में श्रेष्ठ है प्रार्थना। प्रार्थना करने के भी नियम हैं। वे‍दों की ऋचाएं प्रकृति और ईश्वर के प्रति गहरी प्रार्थनाएं ही तो हैं। ऋषि जानते थे प्रार्थना का रहस्य।

संध्या वंदन या प्रार्थना प्रकृति और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का माध्यम है। कृतज्ञता से सकारात्मकता का विकास होता है। सकारात्मकता से मनोकामना की पूर्ति होती है और सभी तरह के रोग तथा शोक मिट जाते हैं। संधिकाल के दर्शन मात्र से ही शरीर और मन के संताप मिट जाते हैं। प्रार्थना का असर बहुत जल्द होता है। समूह में की गई प्रार्थना तो और शीघ्र फलित होती है।

सावधानी : संधिकाल मौन रहने का समय है। उक्त काल में भोजन, नींद, यात्रा, वार्तालाप और संभोग आदि का त्याग कर दिया जाता है। संध्या वंदन में 'पवित्रता' का विशेष ध्यान रखा जाता है। यही वेद नियम है। -शतायु

Monday, December 10, 2012

हिंदू धर्म : मंगल प्रतीक


हिंदू धर्म में मंगल प्रतीकों का खासा महत्व ह। इनके घर में होने से किसी भी कार्य में बाधा उत्पन्न नहीं होती। सभी कार्य मंगलमय तरीके से संपन्न होते हैं। जानते हैं कि वो मंगल प्रतीक कौन कौन से हैं

ॐ है सर्वोपरि मंगल प्रतीक : यह संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रतीक है। बहुत-सी आकाश गंगाएँ इसी तरह फैली हुई है। ॐ शब्द तीन ध्वनियों से बना हुआ है- अ, उ, म इन तीनों ध्वनियों का अर्थ उपनिषद में भी आता है। यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक भी है और यह भू: लोक, भूव: लोक और स्वर्ग लोग का प्रतीक है। ओम का घर में होना जरूरी है। यह मंगलकर्ता ओम ब्रह्म और गणेश का साक्षात् प्रतीक माना गया है।


स्वस्तिक : स्वस्तिक को शक्ति, सौभाग्य, समृद्धि और मंगल का प्रतीक माना जाता है। हर मंगल कार्य में इसको बनाया जाता है। स्वस्तिक का बायां हिस्सा गणेश की शक्ति का स्थान 'गं' बीजमंत्र होता है। इसमें, जो चार बिन्दियां होती हैं, उनमें गौरी, पृथ्वी, कच्छप और अनन्त देवताओं का वास होता है।

इस मंगल-प्रतीक का गणेश की उपासना, धन, वैभव और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी के साथ, बहीखाते की पूजा की परम्परा आदि में विशेष स्थान है। इसकी चारों दिशाओं के अधिपति देवताओं, अग्नि, इन्द्र, वरुण एवं सोम की पूजा हेतु एवं सप्तऋषियों के आशीर्वाद को प्राप्त करने में प्रयोग किया जाता है।


मंगल कलश : सुख और समृद्धि के प्रतीक कलश का शाब्दिक अर्थ है- घड़ा। यह मंगल-कलश समुद्र मंथन का भी प्रतीक है। ईशान भूमि पर रोली, कुंकुम से अष्टदल कमल की आकृति बनाकर उस पर यह मंगल कलश रखा जाता है। एक कांस्य या ताम्र कलश में जल भरकल उसमें कुछ आम के पत्ते डालकर उसके मुख पर नारियल रखा होता है। कलश पर रोली, स्वास्तिक का चिन्ह बनाकर, उसके गले पर मौली (नाड़ा) बांधी जाती है।



शंख : शंख को नादब्रह्म और दिव्य मंत्री की संज्ञा दी गई है। शंख समुद्र मथंन के समय प्राप्त चौदह अनमोल रत्नों में से एक है। लक्ष्मी के साथ उत्पन्न होने के कारण इसे लक्ष्मी भ्राता भी कहा जाता है। यही कारण है कि जिस घर में शंख होता है वहां लक्ष्मी का वास होता है। 

शंख सूर्य व चंद्र के समान देवस्वरूप है जिसके मध्य में वरुण, पृष्ठ में ब्रह्मा तथा अग्र में गंगा और सरस्वती नदियों का वास है। तीर्थाटन से जो लाभ मिलता है, वही लाभ शंख के दर्शन और पूजन से मिलता है। 

रंगोली : रंगोली या मांडना हमारी प्राचीन सभ्यता एवं संस्कृति की समृद्धि के प्रतीक हैं, इसलिए 'चौंसठ कलाओं' में मांडना को भी स्थान प्राप्त है। इससे घर परिवार में मंगल रहता है। उत्सव-पर्व तथा अनेकानेक मांगलिक अवसरों पर रंगोली से घर-आंगन को खूबसूरती के साथ अलंकृत किया जाता है।



दीपक सुन्दर और कल्याणकारी, आरोग्य और संपदा को देने वाले दीपक समृद्धि के साथ ही अग्नि और ज्योति का प्रतीक है। पारंपरिक दीपक मिट्टी का ही होता है। इसमें पांच तत्व हैं मिट्टी, आकाश, जल, अग्नि और वायु। हिंदू अनुष्ठान में पंचतत्वों की उपस्थिति अनिवार्य होती है।




हाथी : विष्‍णु तथा लक्ष्‍मी को हाथी प्रिय रहा है। शक्‍ति, समृद्धि और सत्ता के प्रतीक हाथी को भगवाण गणेश का रूप माना जाता है। समुद्र मंथन में प्राप्‍त हुआ था ऐरावत हाथी, जो सफेद था। घर में ठोस चांदी या सोने का हाथ रखना चाहिए। इसके होने से घर में शांति रहती है।





मंगल सूत्र : हिंदू विवाहित नारी गले में मंगल सूत्र पहनती है। इसकी तुलना किसी अन्य आभूषण से नहीं की जाती। यह पति द्वारा पत्नी को विवाह के समय पहनाता है। यह मंगल सूत्र पति की कुशलता से जुड़ी मंगल कामना का प्रतीक है। इसका खोना या टूटना अपशकुन माना गया है।

जहां मंगल सूत्र का काला धागा और काला मोती स्त्री को बुरी नजर से बचाता है वहीं उसमें लगे सोने के पेंडिल से स्त्री में तेज और ऊर्जा का संचार बना रहता है।


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गरुढ़ घंटी : जिन स्थानों पर घंटी बजने की आवाज नियमित आती है वहां का वातावरण हमेशा शुद्ध और पवित्र बना रहता है। इससे नकारात्मक शक्तियां हटती है। नकारात्मकता हटने से समृद्धि के द्वारा खुलते हैं।
-anirudh joshi

Sunday, November 18, 2012

रंगों की कथा


*सबसे पहले हमें यह समझना चाहिए कि रंग 3 बुनियादी रंगों से व्यवहार करते हैं-सक्रिय, मंद एवं निर्पेक्ष।
*हल्के रंग विस्तार के सूचक एवं हवादार होते हैं और वे कमरे को बड़ा और चमकदार बनाते हैं।
*गाढ़े रंग बहुत मंझे हुए और सौहार्दपूर्ण होते हैं। वे एक बड़े कमरे को अपनेपन की आभा प्रदान करते हैं।
*चलिए जानते हैं, रंगों के बारे में कुछ और कि वे एक कमरे को क्या कर सकते हैं :

लाल रंग से कमरे का ऊर्जा स्तर बढ़ता है। जब आप खासतौर पर रात के समय उत्तेजना पैदा करना चाहते हैं तो इस रंग का चयन बहुत उपयुक्त रहता है।

बैठक हो या डाइनिंग रूम, लाल रंग लोगों को एक जगह एकत्र होने और वार्तालाप करने को प्रेरित करता है। किसी स्थान पर प्रवेश करने के रास्ते में लाल रंग बहुत सशक्त प्रभाव पैदा करता है। यह पाया गया है कि लाल रंग रक्तचाप को बढ़ाता है, श्वास गति को तेज करता है और दिल की धड़कन में वृद्धि करता है। बैडरूम के लिए इसे आमतौर पर अधिक उत्तेजनापूर्ण समझा जाता है लेकिन जब आप कमरे में रात के समय ही आते हैं और रोशनी जलाते हैं तो लाल रंग काफी मंद, घना और सौम्य लगता है। किसी भी अन्य रंग की उपेक्षा यह आप में अधिक जोश भरता है।

किरमची (क्रिमसन) रंग लोगों को चिड़चिड़ा बना देता है। इसे देखकर गुस्सा और विद्वेश बढ़ता है। इस रंग का बिल्कुल ही प्रयोग नहीं करना चाहिए। जिस कमरे की दीवारों पर यह रंग पेंट किया गया होता है वहां लंबे समय तक बैठना घर की शांति और समरसता पर बुरा प्रभाव डालता है।

पीला रंग : यह बहुत बातूनी रंग है। यह सूर्य की रोशनी की खुशी को जज्ब कर लेता है और उल्लास का संचार करता है। पीला रंग रसोई, डाइनिंग रूम एवं बाथरूमों के लिए एकदम सम्पूर्ण होता है क्योंकि वहां ऊर्जादायक एवं स्फूर्तिदायक रंगों की जरूरत होती है। हाल, ड्योढ़ी एवं छोटी जगहों पर पीला रंग विस्तारदायक  एवं अभिवादनीय लगता है। बेशक पीला रंग बहुत उल्लासपूर्ण है फिर भी कोई कमरा डिजाइन करते समय मेन कलर स्कीम में इसे प्रयुक्त करना ठीक नहीं। अध्ययनों से पता चलता है कि पीले इंटीरियर में लोग जल्दी गुस्से में आ जाते हैं। बच्चे भी पीले पेंट वाले कमरे में अधिक रोते हैं। यदि यह रंग बहुत अधिक मात्रा में प्रयुक्त किया जाए तो लोगों में गुस्से और हताशा की भावनाएं बढ़ती हैं। रंग चिकित्सा में यह माना जाता है कि पीला रंग तंतुओं को उत्तेजित करता है और काया को शुद्ध करता है।
नीला रंग : नीला रंग रक्तचाप को नीचे लाता है और श्वास एवं हृदय गति को मंद करता है। यही कारण है कि  इसे शांति प्रदायक, सुखद एवं  निर्मल माना जाता है और अक्सर बैडरूम तथा बाथरूम के लिए इसकी सिफारिश की जाती है लेकिन सावधान रहें कि नीला स्लेटी रंग जो किसी पट्टी पर तो बहुत प्यारा लगता है परंतु जब इसे खास तौर पर कुदरती रोशनी से भरे कमरे में दीवारों और फर्निशिंग पर बहुत अधिक मात्रा में उपयुक्त किया जाता है तो यह रोगकारक ठिठुरन का आभास देता है।

यदि आप किसी कमरे में प्राइमरी रंग के रूप में हल्के नीले का चयन करते हैं तो इसे फर्निशिंग और कपड़ों के गर्माहट देने वाले रंगों से संतुलित करें। सामाजिक स्थलों (बैठक, लिविंग रूम, बड़ी रसोई) में शांत भाव को प्रोत्साहित करने के लिए काशनी अथवा चमकदार नीले रंगों जैसे टर्कोयस या सैरूलियन जैसे सनिग्ध रंगों  को प्राथमिकता देनी चाहिए। यह माना जाता है कि नीले रंग को कमरे में मुख्य रूप के रंग में प्रयुक्त किया जाए तो यह शांत भाव में वृद्धि करता है।

नीले रंग का हल्का शेड ही प्रयुक्त करना चाहिए। गाढ़े नीले रंग से परहेज करना चाहिए क्योंकि इसका विपरीत प्रभाव होता है और यह उदासी की भावनाएं बढ़ाता है इसलिए अपनी मुख्य कलर स्कीम में गाढ़े नीले रंग को प्रयुक्त न करें।  

हरा रंग : हरा रंग आंखों को राहत पहुंचाता है। हरा रंग घर के किसी भी कमरे (लिविंग रूम, फैमिली रूम) के लिए सही रहता है। हरा रंग  तनाव से भी राहत पहुंचाता है। बैडरूम में हरा रंग प्रजनन क्षमता को भी बढ़ाता है।

जामनी रंग : जामनी रंग लग्जरी और रचनात्मकता से जुड़ा हुआ है। हल्का जामनी रंग बैडरूम में आराम का अनुभव करवाता है। यह नीले रंग जैसे ही प्रभाव देता है।

संतरी रंग : संतरी रंग उत्सुकता व ऊर्जा को बढ़ाने वाला है। लिविंग व बैडरूम में लगाने के लिए यह रंग सही नहीं है। कसरत करने वाले कमरे में लगाने के लिए यह सही रंग है। पुराने समय से ही माना जाता रहा है कि यह रंग एनर्जी लैवल को बढ़ाने वाला है। तटस्थ या उदासीन रंग (काला, ग्रे, सफेद और ब्राऊन) ये  किसी डैकोरेटर की टूल किट के मूल रंग होते हैं। सभी तटस्थ स्कीमें फैशन में आती-जाती रहती हैं मगर इन रंगों की लचकता बनी रहती है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि प्रत्येक रूम को काले रंग की आवश्यकता होती है जो अन्य रंगों को गहराई प्रदान करता है।

रंगों का दीवारों व छतों पर प्रभाव
सीलिंग कमरे की 1/6 स्थान प्रस्तुत करती है मगर ज्यादा से ज्यादा सफेद रंग ही प्रयोग में लाया जाता है। नियम के मुताबिक सीलिंग का अगर हल्का रंग हो तो दीवारें ऊंची लगती हैं। गहरे रंग की दीवारों से कमरा छोटा लगता है।  
♦ रीटा छाछी

कैसा हो आपका किचन

महिलाओं का ज्यादातर समय किचन में ही व्यतीत होता है। वास्तुशास्त्रियों के मुताबिक यदि किचन का वास्तु सही न हो तो महिला और घर पर उसका विपरीत प्रभाव पड़ता है। किचन बनवाते समय कुछ बातों पर गौर करना जरूरी है, ताकि वहां पॉजिटिव एनर्जी बनी रहे। किचन की ऊँचाई 10 से 11 फीट होनी चाहिए और गर्म हवा निकलने के लिए वेंटीलेटर होना चाहिए। किचन से लगा हुआ कोई जल स्त्रोत नहीं होना चाहिए। किचन के बाजू में बोर, कुआँ, बाथरूम बनवाना अवाइड करें, सिर्फ वाशिंग स्पेस दे सकते हैं। यदि 4-5 फीट में किचन की ऊँचाई हो तो महिलाओं के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

ध्यान रखें किचन में सूर्य की रोशनी जरूर आए। किचन की साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें, क्योंकि इससे पॉजिटिव एनर्जी आती है।

- किचन हमेशा दक्षिण-पूर्व कोना जिसे अग्निकोण (आग्नेय) कहते है, में ही बनवानी चाहिए। यदि इस कोण में किचन बनाना संभव न हो तो उत्तर-पश्चिम कोण (वायव्य कोण) में बनवा सकते हैं।

- किचन का प्लेटफार्म पूर्व में ही होना चाहिए और ईशान कोण में सिंक व अग्नि कोण में चूल्हा लगाना चाहिए।

- किचन के दक्षिण में कोई दरवाजा या खिड़की नहीं होने चाहिए। खिड़की पूर्व की ओर ही रखें।

- रंग का चयन महिलाओं की कुंडली के आधार पर करना चाहिए।

- किचन में ग्रेनाइट फ्लोर या प्लेटफार्म नहीं बनवाना चाहिए और न ही मिरर जैसी कोई चीज होनी चाहिए, क्योंकि इससे घर में कलह की स्थिति बढ़ती है।

- किचन में लॉफ्ट, अलमारी दक्षिण या पश्चिम दीवार में ही होनी चाहिए।

- पानी फिल्टर ईशान कोण में लगाएँ।

- किचन में कोई भी पावर प्वाइंट जैसे मिक्सर, ग्रांडर, माइक्रोवेव, ओवन को प्लेटफार्म में दक्षिण की तरफ रखना चाहिए। फ्रिज हमेशा वायव्य कोण में रखें।

बिटिया के विवाह में विलंब तो करें ये उपाय


विवाह योग्य बिटिया की शादी में अनावश्यक विलंब के कारण माता-पिता का चिंतित होना स्वाभाविक है। ज्योतिषीय कारण जातक की शादी में विलंब के लिए प्रमुख रूप से उत्तरदायी होते हैं। यदि बिटिया की शादी तय होने में बार-बार रुकावट आ रही हो तो शादी से संबंधित बाधक ग्रह-योगों के उपाय करने से शादी के लिए अनुकूल परिस्थितियां पैदा होकर शीघ्र उत्तम घर व वर मिलने में मदद मिलती है। कुंडली में विवाह का विचार मुख्यत:  सातवें भाव, सप्तमेश, लग्नेश, शुक्र एवं गुरु की स्थिति को ध्यान में रखकर किया जाता है।

सप्तम भाव इसलिए, क्योंकि कुंडली में विवाह से संबंधित भाव यही है। सप्तमेश को देखना इसलिए आवश्यक है क्योंकि वही इस भाव का स्वामी होगा। कन्या की कुंडली में गुरु की स्थिति प्रमुख रूप से विचारणीय होती है क्योंकि उनके लिए गुरु पति का स्थायी कारक है। लग्नेश का सप्तमेश एवं पंचमेश के साथ संबंध भी विवाह को प्रभावित करता है। विवाह संबंधी प्रश्नों में लग्न कुंडली, चंद्र कुंडली और नवमांश कुंडली तीनों से ही विचार करना चाहिए। जन्म कुंडली में कुछ ऐसे योग होते हैं, जो जातिका के विवाह में विलंब का कारण बनते हैं।

प्रमुख कारण जन्म कुंडली में शुक्र वैवाहिक सुख से संबंधित है। वहीं महिलाओं के लिए गुरु पति, पुत्र तथा धन का प्रतिनिधि  ग्रह है। अत: पति सुख के लिए महिलाओं की कुंडली में गुरु की स्थिति विचारणीय है। स्त्री की कुंडली में सप्तम भाव में शनि या चौथे भाव में मंगल आठ अंश तक हो तो विवाह में बाधा आती है। इसी प्रकार स्त्री कुंडली में सप्तम भाव के स्वामी के साथ शनि बैठा हो तो विवाह अधिक आयु में होता है। सातवें भाव में शनि हो और कोई पापी ग्रह उसे देखता हो तो उसका विवाह काफी मुश्किल से होता है।

शनि, सूर्य, राहु, 12वें भाव का स्वामी (द्वादशेश) तथा राहु अधिष्ठित राशि का स्वामी (जैसे राहु मिथुन राशि में बैठा हो तो, मिथुन का स्वामी बुध राहु अधिष्ठित राशि का स्वामी होगा)। ये पांच ग्रह विच्छेदात्मक प्रवृति के होते हैं। इनमें से किन्हीं दो या अधिक ग्रहों की युति या दृष्टि संबंध जन्म कुंडली के जिस भाव स्वामी से होता है तो उसे हानि पहुंचाते हैं। अत: सप्तम भाव या उसके स्वामी को इन ग्रहों द्वारा प्रभावित करने पर विवाह में विलंब हो सकता है तथा दाम्पत्य जीवन में कटुता आती है। सप्तम भाव, सप्तमेश और द्वितीय भाव पर कू्रर ग्रहों का प्रभाव वैवाहिक जीवन में क्लेश उत्पन्न करता है।

शुक्र की नेष्ट स्थिति हो, वह सप्तमेश होकर पाप प्रभाव में हो, नीच व शत्रु नवांश का या षष्ठांश में हो तो विवाह में विलंब तथा दाम्पत्य सुख में बाधा आती है। राहु-केतु सप्तम भाव में हों व उसकी कू्रर ग्रहों से युति हो या उस पर पाप दृष्टि हो, तो विवाह में विलंब होता है तथा दाम्पत्य तनावपूर्ण होता हैं। दोष भी होते हैं कारण घर-परिवार में किसी तांत्रिक प्रयोग के कारण अथवा स्वयं की कुंडली में ग्रह दोष, पितृदोष आदि के कारण संतान के विवाह में अनावश्यक विलंब होता है तथा घर में सम्पन्नता नहीं आ पाती है। ऐसी स्थिति में पितृदोष आदि की शांति करा लेनी चाहिए। विवाह में बाधक ग्रहों की शांति, जप आदि कराने से विवाह शीघ्र होता है।

कन्या की कुंडली में विवाह में विलंब के कुछ प्रमुख योग इस प्रकार हो सकते हैं। विवाह से संबंधित सातवें भाव का स्वामी शुभ युक्त न होकर 6, 8, 12वें भाव में हो और नीच या अस्त हो, तो जातक के विवाह में विलंब हो सकता है। यदि 6, 8, 12वें भाव का स्वामी सप्तम भाव में विराजमान हो, उस पर किसी ग्रह की शुभ दृष्टि न हो या किसी ग्रह से उसका शुभ योग न हो, तो विवाह मे विलंब तथा वैवाहिक सुख में बाधा आती है। लग्न में सूर्य बैठा हो और शनि स्वग्रही (मकर या कुंभ राशि में) होकर सप्तम भाव में विराजमान हो तो विवाह विलंब से होता है। सप्तमेश वक्री हो व शनि की दृष्टि सप्तमेश व सप्तम भाव पर पड़ती हो तो विवाह में विलंब होता है।

सप्तम भाव व सप्तमेश पाप कत्र्तरी योग में हों तो विवाह विलंब से होता है। ऐसे करें उपाय सर्व प्रथम विवाह में बाधक ग्रहों की पहचान कर उस ग्रह से संबंधित व्रत, दान, जप आदि करने चाहिएं। पितृ शांति कराएं। पति के कारक ग्रह गुरु के व्रत विशेष लाभकारी होते हैं। इस दिन हल्दी मिश्रित जल केले को चढ़ाएं, घी का दीपक जलाएं तथा गुरु मंत्र ॐ ऐं क्लीं बृहस्पतये नम: का जप करें। वीरवार को पके केले स्वयं नहीं खाएं। इनका दान करें। विवाह योग्य कन्या को मकान के वायव्य दिशा में सोना चाहिए।

इसके अलावा अपनी राशि के अनुसार उपाय करें, शीघ्र विवाह के अवसर प्राप्त होंगे।

-शीघ्र वर प्राप्ति के लिए मंत्र साधना

ॐ लीं विश्वासुर्नाम गन्धर्व:। कन्यानामधिपति: लभामि। देवदत्तो कन्यां सुरूपां सालकारां तस्मै विश्वासवै स्वाहा।।

वीरवार को किसी शुभ योग में इस मंत्र का फिरोजा की माला से पांच माला जप करें। यह क्रिया ग्यारह वीरवार करें, उत्तम वर व घर शीघ्र मिलेगा।

-ॐ ह्नीं कुमाराय नम: स्वाहा।

सात सोमवार तक नियमित रूप से पारद शिवलिंग के सम्मुख इस मंत्र की 21 माला का जप सोमवार को करें। योग्य वर के साथ शीघ्र विवाह के योग बनेंगे।

ॐ बहि प्रेयसी स्वाहा। महाविद्या भुवनेश्वरी यंत्र के सम्मुख इस मंत्र का सवा लाख जप  करें, उत्तम वर से शीघ्र विवाह के योग बनेंगे।

-कात्यायिनी महामाये महायोगिनीधीश्वरी। नन्द-गोपसुतं देवि! पतिं में कुरु ते नम: ।।

मां पार्वती के चित्र के सामने, पूजा करने के बाद इस मंत्र की ग्यारह माला का जप करें। यह क्रिया 21 दिनों तक नियमित रूप से करें।

Monday, November 12, 2012

मन के दीये


रोशनी का यह पर्व अपने भीतर के अंधेरों को दूर कर मन के दीयों को जलाने की प्रेरणा भी देता है। इस दीपावली नए सिरे से उम्मीदों के दीये जलाएं और उसे पूरा करने में जी-जान से जुट जाएं..

आज दीपावली है। रोशनी और खुशी का पर्व। इस शुभ अवसर पर हम अपने घर-आंगन की गंदगी को अच्छी तरह साफ करते और दीवारों का रंग-रोगन करते है। घर-बाहर को खूबसूरती से सजाते है। मन में कई दिन पहले से खुशियों की फुलझड़ियां छूट रही होती है। जिन्हे दीवाली से ठीक पहले नौकरी मिल गई है या जिन्हे किसी परीक्षा में कामयाबी मिली है, उनके लिए इस प्रकाश पर्व की खुशियां नि:संदेह और बढ़ गई होंगी। हालांकि करियर और तरक्की के लिए जद्दोजहद कर रहे उन युवाओं के लिए जलते दीये और फुलझड़ियां कहीं न कहीं टीस भी पैदा कर रही होंगी, लेकिन उन्हे हताशा से बचते हुए प्रकाश के इस पर्व से प्रेरणा लेते हुए अपने मन को रोशन करने पर ध्यान देना चाहिए।

भीतर भी झांकें:
दीपावली के इस मौके पर घर को तो जरूर चमकाएं, लेकिन इसके साथ-साथ अपने भीतर बैठे अंधेरे को पहचान कर उसे जल्द से जल्द दूर भगाने का उपक्रम करे। आमतौर पर होता यह है कि हम ऊपरी साफ-सफाई करके ही संतुष्ट हो जाते है। अपने भीतर उग आई गंदगी, जालों और अंधेरे बंद कमरों को साफ करके उनमें उजाला भरने की सुध हमें नहीं आती। दरअसल, हम एक तरह से खुद से अनजान रहते है और अपने मन में छिपकर बैठे अंधेरों को पहचान ही नहीं पाते। यह जान ही नहीं पाते मन के इस अंधेरे से जीवन और करियर में हमें कितना नुकसान हो रहा है।

मन का उजाला:
दीप पर्व हमें मौका देता है कि हम खुद के भीतर भी झांक कर देखें। कहीं हमारे भीतर जाने-अनजाने अंधेरे का कोई दानव तो नहीं छिपा बैठा है। उसे तलाशें। उसे वहां से निकालें और मन को झाड़-पोंछकर चमकाएं, ताकि उससे गंदगी की परत हट जाए। यह गंदगी दूर होगी, तभी मन चमकेगा। जगमगाएगा। एक बार स्याह परत को हटा देने के बाद ध्यान रखें कि फिर से यह जमने न पाए, क्योंकि आपकी सफलता-असफलता में आपके मन का सबसे बड़ा हाथ होता है। अपने मन के भीतर उम्मीदों के दीये जलाएं, जो हर समय रोशन रहें। आज के समय में हर व्यक्ति के मन में रोशनी का यह दीया हमेशा जलते रहना चाहिए।

रोशनी की किरण:
मन में उम्मीद का दीया जल जाने के बाद उससे निकलने वाली ज्योति हर पहल आपके रास्तों को रोशन करती रहेगी। जब कभी आप हताश या निराश होंगे, आपको अपने भीतर से ही प्रकाश निकलता महसूस होगा, जो आपको अंधेरे की ओर जाने से बचाते हुए आपकी राह को सदा रोशन रखेगा।

बनाएं नए रास्ते:
मंदी और महंगाई के बीच आज मनपसंद करियर चाहने वालों के लिए मुश्किलें पहले से कहीं ज्यादा है। अवसर कम है और दावेदार ज्यादा। ऐसे में कामयाबी कुछ को ही मिलती है। बाकी बेबस हाथ मलते और दूसरों से रश्क करते रह जाते है। लेकिन मुश्किलें है तो रास्ते भी है। जो ढूंढेगा, वह पाएगा। आज के समय में विकल्पों की कमी नहीं है। अपने आपको किसी सीमा में न बांधें। बाड़े तोड़े। बनी-बनाई लकीर या रास्तों पर चलने के बजाय नए रास्ते बनाएं और साहस के साथ उस पर आगे बढ़े। रास्ता कहीं न कहीं तो निकलेगा ही। याद करे कोलंबस अगर डर कर हिम्मत हार बैठा होता, तो क्या आज अमेरिका सबके सामने होता। दिशा सूचक यंत्र खराब हो जाने और अपने नाविकों की चेतावनी के बावजूद उसने सिर्फ साहस के बल पर न केवल आगे बढ़कर दिखाया, बल्कि एक नई दुनिया खोज दी।

भरोसा बढ़ाएं:
एक बात गांठ बांध लें, अगर आपने एक बार अपने मन के अंधेरे को दूर कर वहां दीया जला लिया, तो फिर आपके लिए कुछ भी मुश्किल नहीं रह जाएगा। मन के उजाले के साथ खुद पर आपका भरोसा भी बढ़ जाएगा, जो आपकी ताकत बनकर झलकेगा। जीत और कामयाबी के लिए भरोसा ही सबसे बड़ा शस्त्र है। आत्मविश्वास के बिना बड़े से बड़े पहलवान को भी धूल चाटते देर नहीं लगती और पिद्दी समझा जाने वाला व्यक्ति अपने कॉन्फिडेस के बल पर ही सूरमा बन जाता है। इसलिए अपने भरोसे को जगाएं और उसे अपनी शक्ति बनाएं।

पीछे नहीं आगे:
आप यह कतई न सोचें कि आपने अब तक क्या-क्या गंवाया है? कहां-कहां आपको असफलता हाथ लगी है? क्यों आप सबसे पीछे रह जाते है? यह न सोचें कि आप तो हर काम में हमेशा नाकाम ही होते रहे है और आगे भी ऐसा ही होगा। अतीत में जो हो गया, सो हो गया। इस दलदल से खुद को बाहर निकालें। अब आप आगे की ओर देखें। अगर आप ठान लें, तो कोई भी आपकी चाही हुई मंजिल तक पहुंचने से आपको रोक नहीं सकता। हां, इसके लिए कोई दूसरा सहारा नहीं बनेगा। मुश्किलों-झंझावातों का मुकाबला करते हुए आपको खुद आगे बढ़ना होगा। इस दौरान न तो हिम्मत हारे और न ही घुटने टेकें। मन को मजबूत करते हुए पूरी ताकत से आगे बढ़े। अवरोधों की परवाह न करे, क्योंकि अवरोध तो आएंगे ही। एक बार अवरोधों को पार कर लिया, तो फिर आपकी जीत पक्की है।

खुद को करे तैयार:
मन में दीपक जलाने और अंधेरे से मुकाबला करने के लिए अपने आपको हर तरह से तैयार भी करना होगा। अपने भीतर झांककर अपनी कमजोरियां तलाशनी होंगी और उन्हे एक-एक करके दूर करना होगा। हो सकता है कि एक-दो सफलता हासिल कर लेने के बाद ही आप ओवर-कॉन्फिडेस और आत्ममुग्धता के शिकार हो जाएं। आपका इनसे बचना बेहत जरूरी है, क्योंकि अगर एक बार इनके चंगुल में फंस गए, तो फिर आगे जाना मुश्किल हो जाएगा। यह भी ध्यान रखें कि कमजोरी हर समय आपके ऊपर आक्रमण करके आपको अपनी चपेट में लेना चाहेगी, लेकिन आपको इससे बचना होगा। इसके अलावा, समय-समय पर अपना मूल्यांकन-आत्मविश्लेषण भी करते रहना होगा।

समय के साथ-साथ:
वर्तमान टेक्नो-एज में बदलाव बहुत तेज हो गया है। ऐसे में वक्त के साथ-साथ चलना बहुत जरूरी हो गया है। जो ऐसा नहीं करेगा, जाहिर है कि वह पीछे छूट जाएगा। खुद को जागरूक और अपडेट रखने के लिए आज के समय में प्रचलित टेक्नोलॉजी और अन्य टूल्स के बारे में जानना-समझना और उन्हे अपनाना भी जरूरी है। अपनी आंखें और कान खुले रखें, ताकि ताजी हवा के झोंके आपको भी हर समय तरोताजा रखें। इस राह पर चलकर ही आप कामयाबी की रोशन राहों पर लगातार आगे बढ़ते रहेगे। कोई भी चुनौती सामने आने पर निर्भय होकर उसका सामना कर सकेंगे।

हर पल उजाला:
मन में उम्मीदों का दीया जलाकर, खुद को अच्छी तरह तैयार करके, अपना कॉन्फिडेस बढ़ाकर, वक्त के साथ चलते हुए आप हर पल रोशनी के साथ रह सकते है। मन से मजबूत और कॉन्फिडेट होने पर हर मंजिल आपको आसान लगेगी। ऐसे में जब भी आपको कोई जीत मिलेगी, तो किसी दीवाली से कम नहीं होगी। .. इस दीपावली आपके मन में उम्मीदों और खुशी का दीया जले, इसी शुभकामना के साथ..।
- इस दीपावली घर के साथ-साथ मन को भी टटोलें और उसे साफ-सुथरा कर उम्मीद का दीया जलाएं।
- अपने भीतर झांकते हुए अपनी कमजोरियों को जानें-समझें और उन्हे दूर करते हुए खुद को मजबूत बनाएं।
- मन का दीया जलाकर और अपने आपको साम‌र्थ्यवान बनाकर आप अपना कॉन्फिडेस बढ़ा सकते है।
[अरुण श्रीवास्तव]

Sunday, October 21, 2012

दुर्गा सप्तशती के सिद्ध चमत्कारी मंत्र


मार्कण्डेय पुराण में ब्रह्माजी ने मनुष्यों के रक्षार्थ परमगोपनीय साधन, कल्याणकारी देवी कवच एवं परम पवित्र उपाय संपूर्ण प्राणियों को बताया, जो देवी की नौ मूर्तियां-स्वरूप हैं, जिन्हें 'नवदुर्गा' कहा जाता है, उनकी आराधना आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से महानवमी तक की जाती है।

श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ मनोरथ सिद्धि के लिए किया जाता है, क्योंकि श्री दुर्गा सप्तशती दैत्यों के संहार की शौर्य गाथा से अधिक कर्म, भक्ति एवं ज्ञान की त्रिवेणी हैं। यह श्री मार्कण्डेय पुराण का अंश है। यह देवी महात्म्य धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चारों पुरुषार्थों को प्रदान करने में सक्षम है। सप्तशती में कुछ ऐसे भी स्रोत एवं मंत्र हैं, जिनके विधिवत पारायण से इच्छित मनोकामना की पूर्ति होती है।

* सर्वकल्याण हेतु -
सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके ।
शरण्येत्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुऽते॥

* बाधा मुक्ति एवं धन-पुत्रादि प्राप्ति के लिए इस मंत्र का जाप फलदायी है-
सर्वाबाधा विनिर्मुक्तो धन धान्य सुतान्वितः।
मनुष्यों मत्प्रसादेन भव‍िष्यंति न संशय॥

* आरोग्य एवं सौभाग्य प्राप्ति के चमत्कारिक फल देने वाले मंत्र को स्वयं देवी दुर्गा ने देवताओं को दिया है-
देहि सौभाग्यं आरोग्यं देहि में परमं सुखम्‌।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

* विपत्ति नाश के लिए-
शरणागतर्द‍िनार्त परित्राण पारायणे।
सर्व स्यार्ति हरे देवि नारायणि नमोऽतुते॥

* ऐश्वर्य, सौभाग्य, आरोग्य, संपदा प्राप्ति एवं शत्रु भय मुक्ति के लिए-
ऐश्वर्य यत्प्रसादेन सौभाग्य-आरोग्य सम्पदः।
शत्रु हानि परो मोक्षः स्तुयते सान किं जनै॥

* विघ्ननाशक मंत्र-
सर्वबाधा प्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरी।
एवमेव त्याया कार्य मस्माद्वैरि विनाशनम्‌॥

जाप विधि- नवरात्रि के प्रतिपदा के दिन घटस्थापना के बाद संकल्प लेकर प्रातः स्नान करके दुर्गा की मूर्ति या चित्र की पंचोपचार या दक्षोपचार या षोड्षोपचार से गंध, पुष्प, धूप दीपक नैवेद्य निवेदित कर पूजा करें। मुख पूर्व या उत्तर दिशा की ओर रखें।

शुद्ध-पवित्र आसन ग्रहण कर रुद्राक्ष या तुलसी या चंदन की माला से मंत्र का जाप एक माला से पांच माला तक पूर्ण कर अपना मनोरथ कहें। पूरी नवरात्रि जाप करने से वांच्छित मनोकामना अवश्य पूरी होती है। समयाभाव में केवल दस बार मंत्र का जाप निरंतर प्रतिदिन करने पर भी मां दुर्गा प्रसन्न हो जाती हैं।

Sunday, October 14, 2012

सती माता कैसे बन गई शक्ति?

प्रजापति दक्ष की पुत्री सती को शैलपुत्री भी कहा जाता था और उसे आर्यों की रानी भी कहा जाता था। दक्ष का राज्य हिमालय के कश्मीर इलाके में था। यह देवी ऋषि कश्यप के साथ मिलकर असुरों का संहार करती थी।

मां सती ने एक दिन कैलाशवासी शिव के दर्शन किए और वह उनके प्रेम में पड़ गई। एक तरफ आर्य थे तो दूसरी तरफ अनार्य। लेकिन सती ने प्रजापति दक्ष की इच्छा के विरुद्ध भगवान शिव से विवाह कर लिया। दक्ष इस विवाह से संतुष्ट नहीं थे, क्योंकि सती ने अपनी मर्जी से एक ऐसे व्यक्ति से विवाह किया था जिसकी वेशभूषा और शक्ल दक्ष को कतई पसंद नहीं थी।

सती के शरीर का जो हिस्सा और धारण किए आभूषण जहां-जहां गिरे वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आ गए। देवी भागवत में 108 शक्तिपीठों का जिक्र है, तो देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का जिक्र मिलता है। देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों की चर्चा की गई है। वर्तमान में भी 51 शक्तिपीठ ही पाए जाते हैं, लेकिन कुछ शक्तिपीठों का पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका में होने के कारण उनका अस्तित्व खतरें में है।

सती ही है शक्ति : शक्ति से सृजन होता है और शक्ति से ही विध्वंस। वेद कहते हैं शक्ति से ही यह ब्रह्मांड चलायमान है। ...शरीर या मन में यदि शक्ति नहीं है तो शरीर और मन का क्या उपयोग। शक्ति के बल पर ही हम संसार में विद्यमान हैं। शक्ति ही ब्रह्मांड की ऊर्जा है। 

मां पार्वती को शक्ति भी कहते हैं। वेद, उपनिषद और गीता में शक्ति को प्रकृति कहा गया है। प्रकृति कहने से अर्थ वह प्रकृति नहीं हो जाती। हर मां प्रकृति है। जहां भी सृजन की शक्ति है वहां प्रकृति ही मानी गई है। इसीलिए मां को प्रकृति कहा गया है। प्रकृति में ही जन्म देने की शक्ति है।

अनादिकाल की परंपरा ने मां के रूप और उनके जीवन रहस्य को बहुत ही विरोधाभासिक बना दिया है। वेदों में ब्रह्मांड की शक्ति को चिद् या प्रकृति कहा गया है। गीता में इसे परा कहा गया है। इसी तरह प्रत्येक ग्रंथों में इस शक्ति को अलग-अलग नाम दिया गया है, लेकिन इसका शिव की अर्धांगिनी माता पार्वती से कोई संबंध नहीं।

इस समूचे ब्रह्मांड में व्याप्त है सिद्धियां और शक्तियां। स्वयं हमारे भीतर भी कई तरह की शक्तियां है। ज्ञानशक्ति, इच्छाशक्ति, मन:शक्ति और क्रियाशक्ति आदि। अनंत है शक्तियां। वेद में इसे चित्त शक्ति कहा गया है। जिससे ब्रह्मांड का जन्म होता है। यह शक्ति सभी के भीतर होती है।

शाक्त धर्म का उद्‍येश्य : शक्ति का संचय करो। शक्ति की उपासना करो। शक्ति ही जीवन है। शक्ति ही धर्म है। शक्ति ही सत्य है। शक्ति ही सर्वत्र व्याप्त है और शक्ति ही हम सभी की आवश्यकता है। बलवान बनो, वीर बनो, निर्भय बनो, स्वतंत्र बनो और शक्तिशाली बनो। तभी तो नाथ और शाक्त सम्प्रदाय के साधक शक्तिमान बनने के लिए तरह-तरह के योग और साधना करते रहते हैं।
- अनिरुद्ध

Tuesday, October 9, 2012

ध्यान



'भीतर से जाग जाना ध्यान है। सदा निर्विचार की दशा में रहना ही ध्यान है।'
ध्यान का मूल अर्थ है जागरूकता, साक्ष‍ी भाव और दृष्टा भाव।

योग का आठवां अंग ध्यान अति महत्वपूर्ण हैं। एक मात्र ध्यान ही ऐसा तत्व है कि उसे साधने से सभी स्वत: ही सधने लगते हैं, लेकिन योग के अन्य अंगों पर यह नियम लागू नहीं होता। ध्यान दो दुनिया के बीच खड़े होने की स्थिति है।

ध्यान की परिभाषा : तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम।। 3-2 ।।-योगसूत्र अर्थात- जहां चित्त को लगाया जाए उसी में वृत्ति का एकतार चलना ध्यान है। धारणा का अर्थ चित्त को एक जगह लाना या ठहराना है, लेकिन ध्यान का अर्थ है जहां भी चित्त ठहरा हुआ है उसमें वृत्ति का एकतार चलना ध्यान है। उसमें जाग्रत रहना ध्यान है।

ध्यान का अर्थ : ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं होता। एकाग्रता टॉर्च की स्पॉट लाइट की तरह होती है जो किसी एक जगह को ही फोकस करती है, लेकिन ध्यान उस बल्ब की तरह है जो चारों दिशाओं में प्रकाश फैलाता है। आमतौर पर आम लोगों का ध्यान बहुत कम वॉट का हो सकता है, लेकिन योगियों का ध्यान सूरज के प्रकाश की तरह होता है जिसकी जद में ब्रह्मांड की हर चीज पकड़ में आ जाती है।

क्रिया नहीं है ध्यान : बहुत से लोग क्रियाओं को ध्यान समझने की भूल करते हैं- जैसे सुदर्शन क्रिया, भावातीत ध्यान और सहज योग ध्यान। दूसरी ओर विधि को भी ध्यान समझने की भूल की जा रही है।

बहुत से संत, गुरु या महात्मा ध्यान की तरह-तरह की क्रांतिकारी विधियां बताते हैं, लेकिन वे यह नहीं बताते हैं कि विधि और ध्यान में फर्क है। क्रिया और ध्यान में फर्क है। क्रिया तो साधन है साध्य नहीं। क्रिया तो ओजार है। क्रिया तो झाड़ू की तरह है।

आंख बंद करके बैठ जाना भी ध्यान नहीं है। किसी मूर्ति का स्मरण करना भी ध्यान नहीं है। माला जपना भी ध्यान नहीं है। अक्सर यह कहा जाता है कि पांच मिनट के लिए ईश्वर का ध्यान करो- यह भी ध्यान नहीं, स्मरण है। ध्यान है क्रियाओं से मुक्ति। विचारों से मुक्ति।
ध्यान का स्वरूप : हमारे मन में एक साथ असंख्य कल्पना और विचार चलते रहते हैं। इससे मन-मस्तिष्क में कोलाहल-सा बना रहता है। हम नहीं चाहते हैं फिर भी यह चलता रहता है। आप लगातार सोच-सोचकर स्वयं को कम और कमजोर करते जा रहे हैं। ध्यान अनावश्यक कल्पना व विचारों को मन से हटाकर शुद्ध और निर्मल मौन में चले जाना है।

ध्यान जैसे-जैसे गहराता है व्यक्ति साक्षी भाव में स्थित होने लगता है। उस पर किसी भी भाव, कल्पना और विचारों का क्षण मात्र भी प्रभाव नहीं पड़ता। मन और मस्तिष्क का मौन हो जाना ही ध्यान का प्राथमिक स्वरूप है। विचार, कल्पना और अतीत के सुख-दुख में जीना ध्यान विरूद्ध है।

ध्यान में इंद्रियां मन के साथ, मन बुद्धि के साथ और बुद्धि अपने स्वरूप आत्मा में लीन होने लगती है। जिन्हें साक्षी या दृष्टा भाव समझ में नहीं आता उन्हें शुरू में ध्यान का अभ्यास आंख बंद करने करना चाहिए। फिर अभ्यास बढ़ जाने पर आंखें बंद हों या खुली, साधक अपने स्वरूप के साथ ही जुड़ा रहता है और अंतत: वह साक्षी भाव में स्थिति होकर किसी काम को करते हुए भी ध्यान की अवस्था में रह सकता है।

मृत्यु आए उससे पहले पूर्णिमा का चांद निकले उस मुकाम तक ले जाओ अपने होश को।

मूलत: ध्यान को चार भागों में बांटा जा सकता है-
1. देखना,
2. सुनना,
3. श्वास लेना और
4. आंखें बंदकर मौन होकर सोच पर ध्‍यान देना।
देखने को दृष्टा या साक्षी ध्यान, सुनने को श्रवण ध्यान, श्वास लेने को प्राणायाम ध्यान और आंखें बंदकर सोच पर ध्यान देने को भृकुटी ध्यान कह सकते हैं। उक्त चार तरह के ध्यान के हजारों उप प्रकार हो सकते हैं।

उक्त चारों तरह का ध्यान आप लेटकर, बैठकर, खड़े रहकर और चलते-चलते भी कर सकते हैं। उक्त तरीकों को में ही ढलकर योग और हिन्दू धर्म में ध्यान के हजारों प्रकार बताएं गए हैं जो प्रत्येक व्यक्ति की मनोदशा अनुसार हैं। भगवान शंकर ने मां पार्वती को ध्यान के 112 प्रकार बताए थे जो 'विज्ञान भैरव तंत्र' में संग्रहित हैं।

देखना : ऐसे लाखों लोग हैं जो देखकर ही सिद्धि तथा मोक्ष के मार्ग चले गए। इसे दृष्टा भाव या साक्षी भाव में ठहरना कहते हैं। आप देखते जरूर हैं, लेकिन वर्तमान में नहीं देख पाते हैं। आपके ढेर सारे विचार, तनाव और कल्पना आपको वर्तमान से काटकर रखते हैं। बोधपूर्वक अर्थात होशपूर्वक वर्तमान को देखना और समझना (सोचना नहीं) ही साक्षी या दृष्टा ध्यान है।

सुनना : सुनकर श्रवण बनने वाले बहुत है। कहते हैं कि सुनकर ही सुन्नत नसीब हुई। सुनना बहुत कठीन है। सुने ध्यान पूर्वक पास और दूर से आने वाली आवाजें। आंख और कान बंदकर सुने भीतर से उत्पन्न होने वाली आवाजें। जब यह सुनना गहरा होता जाता है तब धीरे-धीरे सुनाई देने लगता है- नाद। अर्थात ॐ का स्वर।

श्वास पर ध्यान : बंद आंखों से भीतर और बाहर गहरी सांस लें, बलपूर्वक दबाब डाले बिना यथासंभव गहरी सांस लें, आती-जाती सांस के प्रति होशपूर्ण और सजग रहे। बस यही प्राणायाम ध्यान की सरलतम और प्राथमिक विधि है।

भृकुटी ध्यान : आंखें बंद करके दोनों भोओं के बीच स्थित भृकुटी पर ध्यान लगाकर पूर्णत: बाहर और भीतर से मौन रहकर भीतरी शांति का अनुभव करना। होशपूर्वक अंधकार को देखते रहना ही भृकुटी ध्यान है। कुछ दिनों बाद इसी अंधकार में से ज्योति का प्रकटन होता है। पहले काली, फिर पीली और बाद में सफेद होती हुई नीली।

अब हम ध्यान के पारंपरिक प्रकार की बात करते हैं। यह ध्यान तीन प्रकार का होता है-
1. स्थूल ध्यान,
2. ज्योतिर्ध्यान और
3. सूक्ष्म ध्यान।

1. स्थूल ध्यान- स्थूल चीजों के ध्यान को स्थूल ध्यान कहते हैं- जैसे सिद्धासन में बैठकर आंख बंदकर किसी देवता, मूर्ति, प्रकृति या शरीर के भीतर स्थित हृदय चक्र पर ध्यान देना ही स्थूल ध्यान है। इस ध्यान में कल्पना का महत्व है।

2. ज्योतिर्ध्यान- मूलाधार और लिंगमूल के मध्य स्थान में कुंडलिनी सर्पाकार में स्थित है। इस स्थान पर ज्योतिरूप ब्रह्म का ध्यान करना ही ज्योतिर्ध्यान है।

3. सूक्ष्म ध्यान- साधक सांभवी मुद्रा का अनुष्ठान करते हुए कुंडलिनी का ध्यान करे, इस प्रकार के ध्यान को सूक्ष्म ध्यान कहते हैं।

ध्यान की विधियां

ध्यान करने की अनेकों विधियों में एक विधि यह है कि ध्यान किसी भी विधि से किया नहीं जाता, हो जाता है। ध्यान की योग और तंत्र में हजारों विधियां बताई गई है। हिन्दू, जैन, बौद्ध तथा साधु संगतों में अनेक विधि और क्रियाओं का प्रचलन है। विधि और क्रियाएं आपकी शारीरिक और मानसिक तंद्रा को तोड़ने के लिए है जिससे की आप ध्यानपूर्ण हो जाएं। यहां प्रस्तुत है ध्यान की सरलतम विधियां, लेकिन चमत्कारिक।

विशेष : ध्‍यान की हजारों विधियां हैं। भगवान शंकर ने माँ पार्वती को 112 विधियां बताई थी जो 'विज्ञान भैरव तंत्र' में संग्रहित हैं। इसके अलावा वेद, पुराण और उपनिषदों में ढेरों विधियां है। संत, महात्मा विधियां बताते रहते हैं। उनमें से खासकर 'ओशो रजनीश' ने अपने प्रवचनों में ध्यान की 150 से ज्यादा विधियों का वर्णन किया है।

1- सिद्धासन में बैठकर सर्वप्रथम भीतर की वायु को श्वासों के द्वारा गहराई से बाहर निकाले। अर्थात रेचक करें। फिर कुछ समय के लिए आंखें बंदकर केवल श्वासों को गहरा-गहरा लें और छोड़ें। इस प्रक्रिया में शरीर की दूषित वायु बाहर निकलकर मस्तिष्‍क शांत और तन-मन प्रफुल्लित हो जाएगा। ऐसा प्रतिदिन करते रहने से ध्‍यान जाग्रत होने लगेगा।

2- सिद्धासन में आंखे बंद करके बैठ जाएं। फिर अपने शरीर और मन पर से तनाव हटा दें अर्थात उसे ढीला छोड़ दें। चेहरे पर से भी तनाव हटा दें। बिल्कुल शांत भाव को महसूस करें। महसूस करें कि आपका संपूर्ण शरीर और मन पूरी तरह शांत हो रहा है। नाखून से सिर तक सभी अंग शिथिल हो गए हैं। इस अवस्था में 10 मिनट तक रहें। यह काफी है साक्षी भाव को जानने के लिए।

3- किसी भी सुखासन में आंखें बंदकर शांत व स्थिर होकर बैठ जाएं। फिर बारी-बारी से अपने शरीर के पैर के अंगूठे से लेकर सिर तक अवलोकन करें। इस दौरान महसूस करते जाएं कि आप जिस-जिस अंग का अलोकन कर रहे हैं वह अंग स्वस्थ व सुंदर होता जा रहा है। यह है सेहत का रहस्य। शरीर और मन को तैयार करें ध्यान के लिए।

4. चौथी विधि क्रांतिकारी विधि है जिसका इस्तेमाल अधिक से अधिक लोग करते आएं हैं। इस विधि को कहते हैं साक्षी भाव या दृष्टा भाव में रहना। अर्थात देखना ही सबकुछ हो। देखने के दौरान सोचना बिल्कुल नहीं। यह ध्यान विधि आप कभी भी, कहीं भी कर सकते हैं। सड़क पर चलते हुए इसका प्रयोग अच्छे से किया जा सकता है।

देखें और महसूस करें कि आपके मस्तिष्क में 'विचार और भाव' किसी छत्ते पर भिनभिना रही मधुमक्खी की तरह हैं जिन्हें हटाकर 'मधु' का मजा लिया जा सकता है।

उपरोक्त तीनों ही तरह की सरलतम ध्यान विधियों के दौरान वातावरण को सुगंध और संगीत से तरोताजा और आध्यात्मिक बनाएं। चौथी तरह की विधि के लिए सुबह और शाम के सुहाने वातावरण का उपयोग करें।

ध्यान का स्थान

यदि आप सच में ही ध्यान के प्रति गंभीर है और आप बैठकर ध्यान करना चाहते हैं तो आपके लिए जरूरी है कि आप अच्छा सा स्थान चयन करें। ध्यान करने हेतु शुरुआत में स्थान की जरूरत तो होती ही है। वैसे ध्यान करने का स्थान तो मंदिर होता है। मंदिर इसलिए बनाए गए थे कि लोग वहां जाकर ध्‍यान करें, , लेकिन चूंकि अब मंदिरों में पूजा, पाठ और भजन होते हैं इसलिए वहां ध्यान नहीं कर सकते। प्राचीन मंदिरों की बनावट ही ध्यान के अनुसार हुई थी।

ध्यान करने का स्थान ऐसा हो जहां शोरगुल और ‍प्रदूषण न हो। स्थान साफ-सुथरा और सामान्य तापमान वाला हो। आप कानों में रुई लगाकर भी शोरगुल से बच सकते हैं। मच्छरदानी लगाकर मच्छरों से बच सकते हैं, लेकिन यदि हवा में प्रदूषण है तो कैसे बचेंगे यह तय करें।

गर्मी से त्रस्त व्यक्ति को जैसे एक पेड़ की छांव या शीतल कुटिया का आश्रय राहत देता है, उसी प्रकार सांसारिक झंझटों से पीड़ित व त्रस्त वैरागी के लिए हठयोग और सांसारिकों के लिए एकांत आश्रय माना है।

क्या आप साधना करना चाहते हैं?

तब जहां तक संभव हो शहर के शोरगुल से दूर प्राकृतिक संपदा से भरपूर ऐसे माहौल में रहें, जहां धार्मिक मनोवृत्ति वाले लोग हों और वहां अन्न, जल, फल, मूल आदि से परिपूर्ण व्यवस्था हो। यही आपकी उचित साधनास्थली है। इस तरह के एकांत स्थान का चयन कर वहां एक छोटी-सी कुटिया का निर्माण करें।

कैसी हो कुटिया : ध्यान रखें कि कुटिया के चारों ओर पत्थर, अग्नि या जल न हो। उसके लिए अलग स्थान नियु‍क्त करें। कुटी का द्वार छोटा हो, दीवारों में कहीं तीड़ या छेद न हो, जमीन में कहीं बिल न हो जिससे चूहे या सांप आदि का खतरा बढ़े। कुटिया की जमीन समतल हो, गोबर से भली प्रकार लिपी-पुती हो, कुटिया को अत्यंत पवित्र रखें अर्थात वहां कीड़े-मकोड़े नहीं हों।

कुटिया के बाहर एक छोटा-सा मंडप बनाएं जिसके नीचे हवन करने के लिए उसमें वेदी हो जहां चाहें तो धूना जलाकर रख सकते हैं। यह सर्दियों में बहुत काम आएगा। पास में ही एक अच्छा कुआं या कुंडी हो, जिसकी पाल दीवारों से घिरी हो। कुआं नहीं हो तो इस बात का ध्यान रखें क‍ि आपको पानी लाने के लिए किसी प्रकार की मेहनत न करना पड़े और पानी साफ-सुथरा हो।

अंतत:- अतः जो साधक जिस प्रकार के स्थान में रहता हो, वहाँ भी यथासंभव एकांत प्राप्त कर अभ्यास में सफलता प्राप्त कर सकता है, परंतु हठयोगियों का अनुभव है कि पवित्र वातावरण ही साधना को आगे बढ़ाने और शीघ्र सफलता प्राप्त कराने में काफी अधिक सहायक सिद्ध होता है।

ध्‍यान का लाभ

हम ध्यान है। सोचो की हम क्या है- आंख? कान? नाक? संपूर्ण शरीर? मन या मस्तिष्क? नहीं हम इनमें से कुछ भी नहीं। ध्यान हमारे तन, मन और आत्मा के बीच लयात्मक सम्बन्ध बनाता है। स्वयं को पाना है तो ध्यान जरूरी है। वहीं एकमात्र विकल्प है।

आत्मा को जानना : ध्यान का नियमित अभ्यास करने से आत्मिक शक्ति बढ़ती है। आत्मिक शक्ति से मानसिक शांति की अनुभूति होती है। मानसिक शांति से शरीर स्वस्थ अनुभव करता है। ध्यान के द्वारा हमारी उर्जा केंद्रित होती है। उर्जा केंद्रित होने से मन और शरीर में शक्ति का संचार होता है एवं आत्मिक बल मिलता है।

ध्यान से विजन पॉवर बढ़ता है तथा व्यक्ति में निर्णय लेने की क्षमता का विकास होता है। ध्यान से सभी तरह के रोग और शोक मिट जाते हैं। ध्यान से हमारा तन, मन और मस्तिष्क पूर्णत: शांति, स्वास्थ्य और प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।

क्या होगा ध्यान से : हर तरह का भय जाता रहेगा। चिंता और चिंतन से उपजे रोगों का खात्मा होगा। शरीर में शांति होगी तो स्वस्थ अनुभव करेंगे। कार्य और व्यवहार में सुधार होगा। रिश्तों में तनाव की जगह प्रेम होगा। दृष्टिकोण सकारात्मक होगा। सफलता के बारे में सोचने मात्र से ही सफलता आपके नजदीक आने लगेगी।

ध्यान का महत्व : ध्यान से वर्तमान को देखने और समझने में मदद मिलती है। शुद्ध रूप से देखने की क्षमता बढ़ने से विवेक जाग्रत होगा। विवेक के जाग्रत होने से होश बढ़ेगा। होश के बढ़ने से मृत्यु काल में देह के छूटने का बोध रहेगा। देह के छूटने के बाद जन्म आपकी मुट्‍ठी में होगा। यही है ध्यान का महत्व।

सिर्फ तुम : खुद तक पहुंचने का एक मात्र मार्ग ध्‍यान ही है। ध्यान को छोड़कर बाकी सारे उपाय प्रपंच मात्र है। यदि आप ध्यान नहीं करते हैं तो आप स्वयं को पाने से चूक रहे हैं। स्वयं को पाने का अर्थ है कि हमारे होश पर भावना और विचारों के जो बादल हैं उन्हें पूरी तरह से हटा देना और निर्मल तथा शुद्ध हो जाना।

ज्ञानीजन कहते हैं कि जिंदगी में सब कुछ पा लेने की लिस्ट में सबमें ऊपर स्वयं को रखो। मत चूको स्वयं को। 70 साल सत्तर सेकंड की तरह बीत जाते हैं। योग का लक्ष्य यह है कि किस तरह वह तुम्हारी तंद्रा को तोड़ दे इसीलिए यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार और धारणा को ध्यान तक पहुँचने की सीढ़ी बनाया है।

ध्यान के लाभ:

ध्यान से मानसिक ला- शोर और प्रदूषण के माहौल के चलते व्यक्ति निरर्थक ही तनाव और मानसिक थकान का अनुभव करता रहता है। ध्यान से तनाव के दुष्प्रभाव से बचा जा सकता है। निरंतर ध्यान करते रहने से जहां मस्तिष्क को नई उर्जा प्राप्त होती है वहीं वह विश्राम में रहकर थकानमुक्त अनुभव करता है। गहरी से गहरी नींद से भी अधिक लाभदायक होता है ध्यान।

विशेष : आपकी चिंताएं कम हो जाती हैं। आपकी समस्याएं छोटी हो जाती हैं। ध्यान से आपकी चेतना को लाभ मिलता है। ध्यान से आपके भीतर सामंजस्यता बढ़ती है। जब भी आप भावनात्मक रूप से अस्थिर और परेशान हो जाते हैं, तो ध्यान आपको भीतर से स्वच्छ, निर्मल और शांत करते हुए हिम्मत और हौसला बढ़ाता है।

ध्यान से शरीर को मिलता ला- ध्यान से जहां शुरुआत में मन और मस्तिष्क को विश्राम और नई उर्जा मिलती है वहीं शरीर इस ऊर्जा से स्वयं को लाभांवित कर लेता है। ध्यान करने से शरीर की प्रत्येक कोशिका के भीतर प्राण शक्ति का संचार होता है। शरीर में प्राण शक्ति बढ़ने से आप स्वस्थ अनुभव महसूस करते हैं।

विशेष : ध्यान से उच्च रक्तचाप नियंत्रित होता है। सिरदर्द दूर होता है। शरीर में प्रतिरक्षण क्षमता का विकास होता है, जोकि किसी भी प्रकार की बीमारी से लड़ने में महत्वपूर्ण है। ध्यान से शरीर में स्थिरता बढ़ती है। यह स्थिरता शरीर को मजबूत करती है।

आध्यात्मिक ला- जो व्यक्ति ध्यान करना शुरू करते हैं, वह शांत होने लगते हैं। यह शांति ही मन और शरीर को मजबूती प्रदान करती है। ध्यान आपके होश पर से भावना और विचारों के बादल को हटाकर शुद्ध रूप से आपको वर्तमान में खड़ा कर देता है। ध्यान से काम, क्रोध, मद, लोभ और आसक्ति आदि सभी विकार समाप्त हो जाते हैं। निरंतर साक्षी भाव में रहने से जहां सिद्धियों का जन्म होता है वहीं सिद्धियों में नहीं उलझने वाला व्यक्ति समाधी को प्राप्त लेता है।

कैसे उठाएं ध्यान से लाभ : ध्यान से भरपूर लाभ प्राप्त करने के लिए नियमित अभ्यास करना आवश्यक है। ध्यान करने में ज्यादा समय की जरूरत नहीं मात्र पांच मिनट का ध्यान आपको भरपूर लाभ दे सकता है बशर्ते की आप नियमित करते हैं।

यदि ध्यान आपकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया है तो यह आपके दिन का सबसे बढ़िया समय बन जाता है। आपको इससे आनंद की प्राप्ति होती है। फिर आप इसे पांच से दस मिनट तक बढ़ा सकते हैं। पांच से दस मिनट का ध्यान आपके मस्तिष्क में शुरुआत में तो बीज रूप से रहता है, लेकिन 3 से 4 महिने बाद यह वृक्ष का आकार लेने लगता है और फिर उसके परिणाम आने शुरू हो जाते हैं।


ध्यान के चमत्कारिक अनुभव

ध्यान के अनुभव निराले हैं। जब मन मरता है तो वह खुद को बचाने के लिए पूरे प्रयास करता है। जब विचार बंद होने लगते हैं तो मस्तिष्क ढेर सारे विचारों को प्रस्तुत करने लगता है। जो लोग ध्यान के साथ सतत ईमानदारी से रहते हैं वह मन और मस्तिष्क के बहकावे में नहीं आते हैं, लेकिन जो बहकावे में आ जाते हैं वह कभी ध्यानी नहीं बन सकते।

प्रत्येक ध्यानी को ध्यान के अलग-अलग अनुभव होते हैं। यह उसकी शारीरिक रचना और मानसिक बनावट पर निर्भर करता है कि उसे शुरुआत में क‍िस तरह के अनुभव होंगे। लेकिन ध्यान के एक निश्चित स्तर पर जाने के बाद सभी के अनुभव लगभग समान होने लगते हैं।

शुरुआती अनुभव : शुरुआत में ध्यान करने वालों को ध्यान के दौरान कुछ एक जैसे एवं कुछ अलग प्रकार के अनुभव होते हैं। पहले भौहों के बीच आज्ञा चक्र में ध्यान लगने पर अंधेरा दिखाई देने लगता है। अंधेरे में कहीं नीला और फिर कहीं पीला रंग दिखाई देने लगता है।

यह गोलाकार में दिखाई देने वाले रंग हमारे द्वारा देखे गए दृष्य जगत का रिफ्‍लेक्शन भी हो सकते हैं और हमारे शरीर और मन की हलचल से निर्मित ऊर्जा भी। गोले के भीतर गोले चलते रहते हैं जो कुछ देर दिखाई देने के बाद अदृश्य हो जाते हैं और उसकी जगह वैसा ही दूसरा बड़ा गोला दिखाई देने लगता है। यह क्रम चलता रहता है।

कुछ ज्ञानीजन मानते हैं कि नीला रंग आज्ञा चक्र का एवं जीवात्मा का रंग है। नीले रंग के रूप में जीवात्मा ही दिखाई पड़ती है। पीला रंग जीवात्मा का प्रकाश है। इस प्रकार के गोले दिखना आज्ञा चक्र के जाग्रत होने का लक्षण भी माना जाता है।

इसका लाभ : कुछ दिनों बाद इसका पहला लाभ यह मिलता है कि व्यक्ति के मन और मस्तिष्क से तनाव और चिंता हट जाती है और वह शांति का अनुभव करता है। इसके साथ ही मन में पूर्ण आत्मविश्वास जाग्रत होता है जिससे वह असाधारण कार्य भी शीघ्रता से संपन्न कर लेता है। ऐसा व्यक्ति भूत और भविष्य की कल्पनाओं में नहीं जिता।

दूसरा लाभ यह कि लगातार भृकुटी पर ध्यान लगाते रहने से कुछ माह बाद व्यक्ति को भूत, भविष्य-वर्तमान तीनों प्रत्यक्ष दीखने लगते हैं। ऐसे व्यक्ति को भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के पूर्वाभास भी होने लगते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि उसकी छटी इंद्री जाग्रत होने लगी है और अब उसे ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है। यदि आगे प्रगति करना है तो ऐसे व्यक्ति को लोगो से अपने संपर्क समाप्त करने की हिदायत दी जाती है, लेकिन जो व्यक्ति इसका दुरुपयोग करता है उसे योगभ्रष्ट कहा जाता है।

ध्यान करना अद्भुत है। हमारे यूं तो मूलत: तीन शरीर होते हैं। भौतिक, सूक्ष्म और कारण, लेकिन इस शरीर के अलावा और भी शरीर होते हैं। हमारे शरीर में मुख्यत: सात चक्र हैं। प्रत्येक चक्र से जुड़ा हुआ है एक शरीर। बहुत अद्भुत और आश्चर्यजनक है हमारे शरीर की रचना। दिखाई देने वाला भौतिक शरीर सिर्फ खून, हड्डी और मांस का जोड़ ही नहीं है इसे चलायमान रखने वाले शरीर अलग हैं। कुंडलिनी जागरण में इसका अनुभव होता है।

जो व्यक्ति सतत चार से छह माह तक ध्यान करता रहा है उसे कई बार एक से अधिक शरीरों का अनुभव होने लगता है। अर्थात एक तो यह स्थूल शरीर है और उस शरीर से निकलते हुए 2 अन्य शरीर। ऐसे में बहुत से ध्यानी घबरा जाते हैं और वह सोचते हैं कि यह ना जाने क्या है। उन्हें लगता है कि कहीं मेरी मृत्यु न हो जाए। इस अनुभव से घबराकर वे ध्यान करना छोड़ देते हैं। जब एक बार ध्यान छूटता है तो फिर मुश्किल होती है पुन: उसी अवस्था में लौटने में।

इस अनुभव को समझे- जो दिखाई दे रहा है वह हमारा स्थूल शरीर है। दूसरा सूक्ष्म शरीर हमें दिखाई नहीं देता, लेकिन हम उसे नींद में महसूस कर सकते हैं। इसे ही वेद में मनोमय शरीर कहा है। तीसरा शरीर हमारा कारण शरीर है जिसे विज्ञानमय शरीर कहते हैं।

सूक्ष्म शरीर की क्षमता : सूक्ष्म शरीर ने हमारे स्थूल शरीर को घेर रहा है। हमारे शरीर के चारों तरफ जो ऊर्जा का क्षेत्र है वही सूक्ष्म शरीर है। सूक्ष्म शरीर भी हमारे स्थूल शरीर की तरह ही है यानि यह भी सब कुछ देख सकता है, सूंघ सकता है, खा सकता है, चल सकता है, बोल सकता है आदि। इसके अलावा इस शरीर की और भी कई क्षमता है जैसे वह दीवार के पार देख सकता है। किसी के भी मन की बात जान सकता है। वह कहीं भी पल भर में जा सकता है। वह पूर्वाभास कर सकता है और अतीत की हर बात जान सकता है आदि।

कारण शरीर की क्षमता : तीसरा शरीर कारण शरीर कहलाता है। कारण शरीर ने सूक्ष्म शरीर को घेर के रखा है। इसे बीज शरीर भी कहते हैं। इसमें शरीर और मन की वासना के बीज विद्यमान होते हैं। यह हमारे विचार, भाव और स्मृतियों का बीज रूप में संग्रह कर लेता है। मृत्यु के बाद स्थूल शरीर कुछ दिनों में ही नष्ट हो जाता और सूक्ष्म शरीर कुछ महिनों में विसरित होकर कारण की ऊर्जा में विलिन हो जाता है, लेकिन मृत्यु के बाद यही कारण शरीर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता है और इसी के प्रकाश से पुनः मनोमय व स्थूल शरीर की प्राप्ति होती है अर्थात नया जन्म होता है। कारण शरीर कभी नहीं मरता।

इसी कारण शरीर से कई सिद्ध योगी परकाय प्रवेश में समर्थ हो जाते हैं। जब व्यक्ति निरंतर ध्यान करता है तो कुछ माह बाद यह कारण शरीर हरकत में आने लगता है। अर्थात व्यक्ति की चेतना कारण में स्थित होने लगती है। ध्यान से इसकी शक्ति बढ़ती है। यदि व्यक्ति निडर और होशपूर्वक रहकर निरंतर ध्यान करता रहे तो निश्चित ही वह मृत्यु के पार जा सकता है। मृत्यु के पार जाने का मतलब यह कि अब व्यक्ति ने स्थूल और सूक्ष्म शरीर में रहना छोड़ दिया।

ध्यान का महत्व



अग्नि की तरह है ध्यान। बुराइयां उसमें जलकर भस्म हो जाती हैं। ध्यान है धर्म और योग की आत्मा। ध्यानियों की कोई मृत्यु नहीं होती। लेकिन ध्यान से जो अलग है बुढ़ापे में उसे वह सारे भय सताते हैं, जो मृत्यु के भय से उपजते हैं। अंत काल में उसे अपना जीवन नष्ट ही जान पड़ता है। इसलिए ध्यान करना जरूरी है। ध्‍यान से ही हम अपने मूल स्वरूप या कहें कि स्वयं को प्राप्त कर सकते हैं अर्थात हम कहीं खो गए हैं। स्वयं को ढूंढने के लिए ध्यान ही एक मात्र विकल्प है।

दुनिया को ध्यान की जरूरत है चाहे वह किसी भी देश या धर्म का व्यक्ति हो। ध्यान से ही व्यक्ति की मानसिक संवरचना में बदलाव हो सकता है। ध्यान से ही हिंसा और मूढ़ता का खात्मा हो सकता है। ध्यान के अभ्यास से जागरूकता बढ़ती है जागरूकता से हमें हमारी और लोगों की बुद्धिहिनता का पता चलने लगता है। ध्यानी व्यक्ति चुप इसलिए रहता है कि वह लोगों के भीतर झांककर देख लेता है कि इसके भीतर क्या चल रहा है और यह ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है। ध्यानी व्यक्ति यंत्रवत जीना छोड़ देता है।

ध्यान अनावश्यक विचारों को मन से निकालकर शुद्ध और आवश्यक विचारों को मस्तिष्क में जगह देता है।

आत्मिक शक्ति का विकास : ध्यान तन, मन और आत्मा के बीच लयात्मक सम्बन्ध बनाता है और उसे बल प्रदान करता है। ध्यान का नियमित अभ्यास करने से आत्मिक शक्ति बढ़ती और मानसिक शांति की अनुभूति होती है। ध्यान का अभ्यास करते समय शुरू में 5 मिनट भी काफी होता है। अभ्यास से 20-30 मिनट तक ध्यान लगा सकते हैं।

मौन कर देता है ध्यान : ध्यान बहुत शांति प्रदान करता है। ध्यानस्थ होंगे, तो ज्यादा बात करने और जोर से बोलने का मन ही नहीं करेगा। जिनके भीतर व्यर्थ के विचार हैं वे ज्यादा बात करते हैं। वे प्रवचनकार भी बन जाते हैं। यदि गौर से देखा जाए तो वे जिंदगीभर वही वहीं बातें करते रहते हैं जो अतीत में करते रहे हैं। भटके हुए मन के लोग जिंदगी भर व्यर्थ की बकवास करते रहते हैं जैसे आपने टीवी चैनलों पर बहस होते देखी होगी। समस्याओं का समाधान बहस में नहीं ध्यानमें है।