Saturday, September 12, 2020

प्राणों के नाम, स्थान और कार्य

हमारा शरीर जिस तत्व के कारण जीवित है, उसका नाम ‘प्राण’ है। शरीर में हाथ-पाँव आदि कर्मेन्द्रियां, नेत्र-श्रोत्र आदि ज्ञानेंद्रियाँ तथा अन्य सब अवयव-अंग इस प्राण से ही शक्ति पाकर समस्त कार्यों को करते है। प्राण से ही भोजन का पाचन, रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य, रज, ओज आदि सभी धातुओं का निर्माण होता है तथा व्यर्थ पदार्थों का शरीर से बाहर निकलना, उठना, बैठना, चलना, बोलना, चिंतन-मनन-स्मरण-ध्यान आदि समस्त स्थूल व सूक्ष्म क्रियाएँ होती है। प्राण की न्यूनता-निर्बलता होने पर शरीर के अवयव शिथिल व मृतप्राय हो जाते है। प्राण के बलवान होने पर समस्त शरीर के अवयवों में बल, पराक्रम आते है और पुरुषार्थ, साहस, उत्साह, धैर्य, आशा, प्रसन्नता, तप, क्षमा, आदि की प्रवृत्ति होती है।

शरीर के बलवान व निरोग होने पर ही भौतिक व आध्यात्मिक (spiritual) लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सकती है। इसलिए हमें प्राणों की रक्षा करनी चाहिए अर्थात शुद्ध आहार, प्रगाढ़ निद्रा, ब्रह्मचर्य, प्राणायाम (pranayama) आदि के माध्यम से शरीर को प्राणवान बनाना चाहिए। ईश्वर (omnipresent god) इस प्राण को जीवात्मा (soul) के उपयोग के लिए प्रदान करता है। जैसे ही जीवात्मा किसी शरीर में प्रवेश करता है प्राण भी उसके साथ शरीर में प्रवेश करता है और जीवात्मा के शरीर में से निकलते ही शरीर से प्राण भी निकाल जाता है।

मुख्यत: प्राण 5 बताए गए हैं- 

प्राण, 

अपान, 

समान, 

उदान और 

व्यान। 

                        मुख्य प्राण


१. प्राण – इसका स्थान नासिका से हृदय(heart) तक है। नेत्र, श्रोत्र, मुख आदि अवयव इसी के सहयोग से कार्य करते है। यह सभी प्राणों का राजा है। जैसे राजा अपने अधिकारियों को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न कार्यों के लिए नियुक्त करता है, वैसे ही यह भी अन्य प्राणों को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न कार्यों के लिए नियुक्त करता है।


२. अपान – इसका स्थान नाभि से पाँव तक है। यह गुदा इंद्रिय द्वारा मल व वायु तथा मूत्रेन्द्रिय द्वारा मूत्र व वीर्य को तथा योनि द्वारा रज व गर्भ को शरीर से बाहर निकालने का कार्य करता है।


३. समान – इसका स्थान हृदय से नाभि तक है। यह खाए हुए अन्न को पचाने तथा पचे हुए अन्न से रस, रक्त आदि धातुओं को बनाने का कार्य करता है।


४. उदान – यह कण्ठ से शिर (मस्तिष्क) तक के अवयवों में रहता है। शब्दों का उच्चारण, वमन आदि के अतिरिक्त यह अच्छे कर्म करने वाली जीवात्मा को उत्तम योनि में व बुरे कर्म करने वाली जीवात्मा को बुरे लोक (सूअर, कुत्ते आदि की योनि) में तथा जिस मनुष्य के पाप-पुण्य बराबर हो, उसे मनुष्य लोक(मनुष्य योनि) में ले जाता है।


५. व्यान – यह सम्पूर्ण शरीर में रहता है। हृदय से मुख्य १०१ नाड़ियाँ निकलती हैं, प्रत्येक नाड़ी की १००-१०० शाखाएँ है तथा प्रत्येक शाखा की भी ७२००० उपशाखाएँ है। इस प्रकार कुल ७२७२१०२०१ नाड़ी शाखा-उपशाखाओं में यह रहता है। समस्त शरीर में रक्त संचार, प्राण-संचार का कार्य यही करता है तथा अन्य प्राणों को उनके कार्यों में सहयोग भी देता है।


उपप्राण

उपप्राण भी 5 ही बताए हैं-

 नाग,

 कूर्म, 

कृकल, 

देवदत्त और 

धनंजय।


१. नाग – यह कण्ठ से मुख तक रहता है। डकार, हिचकी आदि कर्म इसी के द्वारा होते है।


२. कूर्म – इसका स्थान मुख्य रूप से नेत्र गोलक है। यह नेत्र गोलकों में रहता हुआ उन्हें दाएँ-बाएँ, ऊपर-नीचे घुमाने की तथा पलकों को खोलने बंद करने की क्रिया करता है। आँसू भी इसी के सहयोग से निकलते है।


३. कृकल – यह मुख से हृदय तक के स्थान में रहता है तथा जंभाई, भूख, प्यास आदि को उत्पन्न करने का कार्य करता है।


४. देवदत्त – यह नासिका से कण्ठ तक के स्थान में रहता है। इसका कार्य छींक, आलस्य, तन्द्रा, निद्रा आदि को लाने का है।


५. धनंजय – यह सम्पूर्ण शरीर में व्यापक है। इसका कार्य शरीर के अवयवों को खींचे रखना, माँसपेशियों (muscles) को सुंदर बनाना आदि है। शरीर में से जीवात्मा के निकल जाने पर यह भी निकल जाता है, फलत: इस प्राण के अभाव में शरीर फूल जाता है।

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