प्यारे प्रभु के दर्शन करने हैं तो मन मन्दिर की सफाई करो। तब देव अपनी सर्व शक्तियों से उसमें पधारेंगे। मन को निर्मल बनाने के लिए अपने में मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा आदि भावनाओं को जगाओ। अर्थात् सुखी पुरुषों में मित्रता, दुखियों पर करुणा-पुण्य आत्माओं पर हर्ष और पापियों पर उपेक्षा की भावना से चित्त निर्मल हो जाता है। मैत्री, करुणा और हर्ष से चित में उत्साह और शान्ति रहती है और पापियों की उपेक्षा करने से मनुष्य क्रोध से बच जाता है। इसके अलावा छल, कपट और स्वार्थादि दोषों को छोड़ दो, दोनों में स्वार्थ मुख्य है।
इसके उदय होने से शेष सब अवगुण अपना बल बढ़ाते हैं। गुणों में मैत्री सबसे अधिक मूल्यवान है। इसके आने पर शेष सब गुण इसकी छाया मैं आ जाते हैं प्रेम प्रकाश है, स्वार्थ अन्धकार है, प्रेम उदार है स्वार्थ धोखे का बाजार है। प्रेम ने संसार को सुधारा स्वार्थ ने संसार को बिगाड़ा- प्रेम परमेश्वर से मिलाता है। स्वार्थ संसार के बंधन में गिराता है।
इसलिए प्रेम सत्संग, स्वाध्याय द्वारा निष्कपट, सरल स्वभाव से अपने अन्तःकरण को पवित्र बनाओ अनेक जन्मों की परम्परा से जो बुरी वासनायें दृढ़ हो गई हैं उनको दूर करो, स्वार्थ को छोड़कर सच्ची प्रभु भक्ति साधारणतया, प्राणी मात्र की सेवा और विशेषतया मनुष्य मात्र की सेवा करो। इस प्रकार जो मल बुरे खोटे कर्मों के करने से बढ़ता है, विक्षेप जो पुरुषार्थ न करके केवल इच्छा करते रहने से मन को चंचल बनाता है और आवरण जो स्वाध्याय सत्संग के बिना बढ़ता है को दूर करके भगवान की कृपा को प्राप्त करो। यही एक सरल मार्ग है।
✍🏻 स्वामी सर्वदानन्द जी महाराज
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1943
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