Tuesday, April 26, 2011

शौच से सकारात्मक सोच


शौच को अंग्रेजी में Purity कह सकते हैं। अष्टांग योग के दूसरे अंग 'नियम' के उपांगों के अंतर्गत प्रथम 'शौच' का जीवन में बहुत महत्व है। शौच अर्थात शुचिता, शुद्धता, शुद्धि, विशुद्धता, पवित्रता और निर्मलता। शौच का अर्थ शरीर और मन की बाहरी और आंतरिक पवित्रता से है।

शौच का अर्थ मलिनता को बाहर निकालना भी है। शौच के दो प्रकार हैं- बाह्य और आभ्यन्तर। बाह्य का अर्थ बाहरी शुद्धि से है और आभ्यन्तर का अर्थ आंतरिक अर्थात मन वचन और कर्म की शुद्धि से है। जब व्यक्ति शरीर, मन, वचन और कर्म से शुद्ध रहता है तब उसे स्वास्थ्‍य और सकारात्मक ऊर्जा का लाभ मिलना शुरू हो जाता है।

*बाहरी शुद्धि- हमेशा दातुन कर स्नान करना एवं पवित्रता बनाए रखना बाह्य शौच है। कितने भी बीमार हों तो भी मिट्टी, साबुन, पानी से थोड़ी मात्रा में ही सही लेकिन बाहरी पवित्रता अवश्य बनाए रखनी चाहिए। आप चाहे तो शरीर के जो छिद्र हैं उन्हें ही जल से साफ और पवित्र बनाएँ रख सकते हैं। बाहरी शुद्धता के लिए अच्छा और पवित्र जल-भोजन करना भी जरूरी है। अपवित्र या तामसिक खानपान से बाहरी शु‍द्धता भंग होती है।

*आंतरिक शुद्धि- आभ्यन्तर शौच उसे कहते हैं जिसमें हृदय से रोग-द्वेष तथा मन के सभी खोटे कर्म को दूर किया जाता है। जैसे क्रोध से मस्तिष्क और स्नायुतंत्र क्षतिग्रस्त होता है। लालच, ईर्ष्या, कंजूसी आदि से मन में संकुचन पैदा होता है जो शरीर की ग्रंथियों को भी संकुचित कर देता है। यह सभी हमारी सेहत को प्रभावित करते हैं। मन, वचन और कर्म से पवित्र रहना ही आंतरिक शुद्धता के अंतर्गत आता है अर्थात अच्छा सोचे, बोले और करें।

शौच के लाभ- ईर्ष्या, द्वेष, तृष्णा, अभिमान, कुविचार और पंच क्लेश को छोड़ने से दया, क्षमा, नम्रता, स्नेह, मधुर भाषण तथा त्याग का जन्म होता है। इससे मन और शरीर में जाग्रति का जन्म होता है। विचारों में सकारात्मकता बढ़कर उसके असर की क्षमता बढ़ती है। रोग और शौक से छुटकारा मिलता है। शरीर स्वस्थ और सेहतमंद अनुभव करता है। निराशा, हताशा और नकारात्मकता दूर होकर व्यक्ति की कार्यक्षमता बढ़ती है।

  अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

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