Wednesday, March 6, 2013

अनुशासन

अनुशासन का सीधा अर्थ अपने दायरे में रहना है। हमारा जो फर्ज है, जो कर्तव्य है उसे ठीक समय पर पूरा करना और किसी दूसरे के कार्य में दखल न देना ही सही मायने में अनुशासन का पालन करना है। यदि हम अनुशासन का पालन करते हैं, तो हमारी मान-मर्यादा बनी रहती है। इसके विपरीत हम मनमानी पर उतर आएं, तो इसका बुरा नतीजा भुगतना पड़ता है। जीवन में सच्चे संकल्प और अनुशासन से इनसान किस तरह कामयाबी को अपनी मुट्ठी में बंद कर सकता है, इसके लिए अनगिनत मिसालें पेश की जा सकती हैं। महाभारत के प्रसिद्ध पात्र कर्ण का जीवन इस संबंध में सबके लिए अनुकरणीय हो सकता है। दानवीर कर्ण के बचपन का जीवन कितना संघर्ष भरा था, यह तो आप सब लोग जानते हैं। जन्म लेते ही समाज के विरोध का ख्याल कर माता ने नदी में बहा दिया और फिर एक निसंतान दंपति ने उनका पालन-पोषण किया। जन्म से कुलीन होने पर भी ऐसी विवशता रही कि उन्हें सूतपुत्र का विशेषण मिला और आचार्य द्रोण ने शिक्षा देने से इंनकार कर दिया। मगर संकल्प के धनी कर्ण ने अपनी सच्ची लगन और अनुशासन पालन से शास्त्र और शस्त्र विद्या अर्जित की। फिर इसी के बल पर कर्ण ने अपनी अलग पहचान बनाई। वैसे तो महाभारत के नायक के रूप में अर्जुन को जाना जाता है, मगर यह कहना अनुचित नहीं होगा कि कर्ण किसी भी रूप से अर्जुन से कम नहीं। यहां तक कि अर्जुन को श्रीकृष्ण जैसा सारथी न मिला होता तो उनकी विजय यात्रा कभी पूरी नहीं होती। कौरव दल में कर्ण ही एक केवल एकमात्र ऐसे महारथी थे जो अर्जुन को परास्त कर देने की काबिलियत रखते थे। लेकिन अधर्म और अन्याय के समर्थक दुर्योधन के पक्ष में अपना मित्र धर्म निभाने के लिए वह खड़े थे, इसलिए उन्हें कामयाबी नहीं मिल पाई। फिर इतना कुछ होने के बावजूद व्यक्तिगत रूप में कर्ण का चरित्र, उनकी भूमिका उन्हें सम्मान का पात्र बनाती है। यहां इस प्रसंग का जिक्र मैंने इसलिए किया है ताकि आप यह समझ सकें कि इंसान कि असली पहचान कुल, गोत्र,जाति नहीं, इसका कर्म और सच्चे संकल्प से कर्मक्षेत्र में लगातार जुटा रहता है उसे संसार हमेशा सम्मान देता है। उसकी कीर्ति पताका हमेशा लहराती रहती है।  यदि इस मामले में  मैं आज के दौर की बात करूं, तो जीवन के शुरूआती सफर में मेरी भी राम कहानी कुछ ऐसी रही कि यदि संकल्प और अनुशासन की  अहमियत नहीं समझता, तो आज कहीं का नहीं होता। देश के बंटवारे का वह वक्त आज भी मैं चाहकर भी नहीं भूल सकता।  संयम और सादगी की अहमियत को समझें, क्योंकि  इसी के सहारे चरित्र का निर्माण होता है।  खान—पान में संयम,व्यवहार में संयम,  इसका हमारे जीवन की खुशहाली तय करने  में बहुत ही  महत्व है। इसी तरह सादगी में जो सुख है,व्यर्थ के दिखावे से हासिल होने वाले क्षणिक सुख से उसकी तुलना भी नहीं  की जा सकती । सच तो यह है कि सादगी और संयम अपनाने से अपने आप हम अनुशासन करने लगते हैं। और फिर जीवन से  ख्वाब अधूरे नहीं रह पाते। दृढ़ संकल्प और अनुशासन के महत्व को समझने के लिए हमें प्राचीन महापुरुषों की  जीवनगाथाओं का भी मनन करना चाहिए।  जीवनगाथाओं का मनन करने से हमारे मन को बल मिलता है, बुरी आदतें उसे अपना गुलाम नहीं बना पातीं और  अपने संकल्प को  सपनों को पूरा करने के लिए हर हाल में तत्पर रहते हैं। हमें अपने समाज में  भी वैसी हस्तियों से सबक लेना चाहिए, जिन्होंने सच्चाई, ईमानदारी, अनुशासन, परोपकार आदि के बल पर अगली कतार  में बैठने की काबिलियत हासिल की, समाज में अपना नाम रोशन किया।  क्रोध से हमेशा दूरी बनाए रखें, मन को शांत रखें, क्योंकि क्रोध में मन बेकाबू हो जाता है और हम गलत कदम उठा बैठते हैं। पल भर का क्रोध आपका भविष्य बिगाड़ सकता है। यदि कभी क्रोध आए तो  उस समय कोई निर्णय न लें, बल्कि मौन धारण कर लें, शांत हो जाएं। फिर जब मन पूरी तरह शांत हो जाए, तो इस बात का विचार करें कि आपका क्रोध कितना अनर्थ कर सकता था। अपने जीवन को खुशहाल बनाने के लिए पूरे दिन का वक्त के हिसाब से  एक प्रोग्राम तय करें। काम का, आराम का,घूमने का, सोने का  पूजा पाठ का  मगर घबराएं नहीं ,सख्ती से खुद पर लागू करें।

काल और कर्म का संयोग है जीवन



आदिशक्ति की लीलाकथा की कडि़यां कर्म के रहस्य का बोध कराती हैं। जीवन की सही पहचान परिचय व परिभाषा इन्हीं दो शब्दों में निहित है- काल व कर्म। हम सबकों जो जीवन मिला है, वह काल का सुनिश्चित खंड है। इसी कालखंड में हमें कर्म करने व भोगने हैं। काल का जो वर्तमान खंड है, उसमें हम अपने मनचाहे कर्म कर सकते हैं। इस अवधि में हम जो भी कर्म करते हैं वे केवल वर्तमान तक सीमित नहीं रहते हैं। इनका प्रभाव हमारे भूतकाल मे हो चुके कर्मों पर पड़ता हैं और भविष्यकाल के कर्मों पर भी। यदि भूतकाल में पुराने अतीत मे हमसे कुछ गलतियां बन पड़ी हैं, कुछ अपराध हो चुके हैं तो वर्तमान के शुभ कर्मों से उनका परिमार्जन, पक्षालन व प्रायश्चित किया जा सकता है। इतना ही नहीं वर्तमान के ये शुभ कर्म हमारे समुज्ज्वल भविष्य का निर्माण करने में भी समर्थ हैं।


जो जीवन के इस सच से सुपरिचित हैं, वे अपने जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करते हैं और प्रतिक्षण प्रतिपल शुभ कर्मों के संपादन में संलग्न रहते हैं। वे जानते हैं कि जीवन वासना, तृष्णा व अहंता की पूर्ति का साधन नहीं है, बल्कि यह शुभ कर्मों को करने का एक माध्यम हैं। इसके विपरीत जो इस सच से अपरिचित हैं, वे भिन्न-भिन्न भ्रांतियों में भटकते-बहकते रहते हैं। कभी उन्हें मोह बांधता है, तो कभी वासना खींचती है और कभी ऐसे लोग अहंता के उन्माद में अकरणीय करते रहते हैं। कर्म अपने वर्तमानकाल में बहुत कुछ मनचाहा कर सकते हैं, परंतु उचित समय पर जब ये कर्म काल के गर्भ में परिपक्व हो जाते हैं तो इनके परिणाम को भोगने के लिए हमें विवश होना पड़ता है। इसलिए जो जीवन के सच को, इसके मर्म को समझते हैं वे जानते हैं कि जीवन न तो केवल काल है और न ही केवल कर्म। यह तो इन दोनों का सुखद संयोग है, जो सदा शुभ कर्म करते हैं। उनके लिए काल का प्रत्येक क्षण सर्वदा श्ुभ होता है, परंतु जो भ्रांति, भटकन, लालसा या फिर उन्माद में अशुभ कर्म करने लगते हैं उनके लिए काल का प्रत्येक क्षण अशुभ ही होता है। इसलिए अशुभ कर्म, अशुभ भाव एवं अशुभ विचार से जितना बचा जाए, उतना ही अच्छा है। आदिशक्ति जगन्माता काल व कर्म की नियंता होने के कारण महाकाली कहलाती है। वही जब शुभ कर्मों का सत्परिणाम देती हैं तो महालक्ष्मी कही जाती हैं। भ्रांतियों भटकन को दूर भगाते समय वही महासरस्वती का स्वरूप धारण करती हैं। लेकिन जो अशुभ कर्मों की डगर पर चल पड़ता है, उसके लिए आदिशक्ति से महाकाली स्वरूप में विनाश प्रकट हो जाता है। महालक्ष्मी बन कर समृद्धि देने के बजाय जेष्ठा बनकर संपूर्ण समृद्धि का हरण कर लेती हैं। यही नहीं वह अशुभ परिणाम देने कोआप संस्थिता हो जाती हैं। जीवन में जब भी ऐसा समय आता है तो वह बड़ा कष्टकारक व विषम होता है। ऐसे कष्टकारी, क्लेशकारी समय का एक ही समाधान है, भगवती के श्री चरणों में शरणागति। इस शरणागति के पथ को जो सुझाता है, बताता है वही महर्षि मेधा की भांति सच्चा सदगुरु हो जाता है।

ईश्वर की प्रार्थना

असली प्रार्थना वह है जो तुम्हें बदलती है। प्रार्थना करने में तुम बदलते हो। तुम्हारी प्रार्थना ही अगर तुम्हारे हृदय तक पहुंच जाए, सुन लो तुम तो रूपांतरण हो जाता है….

प्रार्थना का प्रयोजन ही प्रभु तक पहुंचने में नहीं है। प्रार्थना तुम्हारे हृदय का भाव है। फूल खिले सुगंध किसी के नासापुटों तक पहुंचती है, यह बात प्रयोजन की नहीं है। प्रार्थना तुम्हारी फूल की गंध की तरह होनी चाहिए। तुमने निवेदन कर दिया, तुम्हारा आनंद निवेदन करने में ही होना चाहिए। इससे ज्यादा का मतलब है कि कुछ मांग छिपी हुई है भीतर। तुम कुछ मांग रहे हो। जब तुमने मांगा, प्रार्थना को मार डाला, गला घोंट दिया, प्रार्थना तो प्रार्थना ही तभी है, जब उसमें कोई वासना नहीं है। वासना से मुक्त होने के कारण ही प्रार्थना है। वही तो उसकी पावनता है। तुमने अगर प्रार्थना में कुछ वासना रखी, कुछ भी परमात्मा को पाने की ही सही तो तुम्हारा अहंकार बोल रहा है। अहंकार की बोली प्रार्थना नहीं है। अंहकार के तो बोल ही नहीं। प्रार्थना आनंद है। कोयल ने कुहू-कुहू का गीत गाया, मोर नाचा, नदी का कलकल नाद है,फूलों की गंध है, सूरज की किरणें हैं, कहीं कोई प्रयोजन नहीं है,आनंद की अभिव्यक्ति है,ऐसी तुम्हारी प्रार्थना हो। तुम्हें इतना दिया है परमात्मा ने, प्रार्थना तुम्हारा धन्यवाद होना चाहिए-तुम्हारी कृतज्ञता। लेकिन प्रार्थना तुम्हारी मांग होती है। तुम यह नहीं कहने जाते मंदिर कि हे प्रभु , इतना तूने दिया, धन्यवाद! कि मैं अपात्र, और मुझे इतना भर दिया! मेरी कोई योग्यता नहीं, और तू औघड़दानी और तूने इतना दिया। मैंने कुछ भी अर्जित नहीं किया, और तू दिए चला जाता है, तेरे दान का अंत नहीं है। धन्यवाद देने जब तुम मंदिर जाते हो तब प्रार्थना। पहुंची या नहीं पहुंची यह सवाल नहीं है। तुमने कुछ मांगा, तो उसका अर्थ हुआ कि तुम परमात्मा को बदलने गए। उसका इरादा मेरे अनुसार चलना चाहिए। यह प्रार्थना हुई? तुम परमात्मा को अपने से ज्यादा समझदार समझ रहे हो? तुम सलाह दे रहे हो? यह अपमान हुआ। यह नास्तिकता है, आस्तिकता नहीं है। आस्तिक तो कहता है तेरी मर्जी ही ठीक है। मेरी मर्जी सुनना ही मत। क्योंकि मेरी सुनी तो भूल हो जाएगी। तू जो करे वो ठीक है। ठीक की और कोई परिभाषा नहीं है। प्रार्थना तुम्हारा सहज आनंदभाव । प्रार्थना साधन नहीं ,साध्य। प्रार्थना अपने में पर्याप्त,अपने में पूरी, परिपूर्ण। नाचो, गाओ, आह्लाद प्रकट करो, उत्सव मनाओ। बस वही आनंद है। वही आनंद तुम्हें रूपांतरित करेगा। वही आनंद रसायन है। उसी आनंद में लिप्त होते-होते तुम पाओगे-अरे परमात्मा तक पहुंचे या नहीं, इससे क्या प्रयोजन है? मैं बदल गया! मैं नया हो आया! प्रार्थना स्नान है आत्मा का। उससे तुम शुद्ध होओगे, तुम निखरोगे। और एक दिन तुम पाओगे कि प्रार्थना निखरती गई, एक दिन अचानक चौंक कर पाओगे कि तुम ही परमात्मा हो। जब तक यह जान न लिया जाए कि मैं परमात्मा हूं तब तक कुछ भी नहीं जाना-या जो जाना सब आसार है।