Tuesday, August 28, 2012

बुरे कर्म का 'घातक चक्र'

कर्म कैसा भी है यदि उसकी आदत निर्मित हो गई है तो वह चक्र में शामिल हो जाता है। आदत हमारे मन का हिस्सा जब बन जाती है तो फिर उससे छुटकाना पाना कठिन होता है और यह आदत जब लंबे समय तक जारी रहती है तो यह चित्त में घर कर जाती है। जब चित्त में घर कर जाती है तो यह धारणा बन जाती है। जब धारणा बन जाती है तो उसी से हमारे वर्तमान और भविष्य संचालित होता रहता है। इसलिए कर्म करते वक्त सकर्त रहना जरूरी है।

योग और गीता में कर्म चक्र के परिणाम को विस्तार से बताया गया है। यदि आप धर्म और समाज द्वारा निषिद्ध कर्मों को करते आए हैं तो निश्चित ही उसको करते रहने के अभ्यास से उसकी आदत आपसे छूट पाना मुश्किल होगी। चित्त पर किसी कर्म के चिपक जाने से उसका छूटना मुश्किल होता है। यदि किसी व्यक्ति के साथ बुरे से बुरा ही होता रहता है तो इस चक्र को समझो। निश्‍चित ही कतार में खड़ी प्रथम साइकल को हम गिरा देते हैं तो इसकी सम्भावना बन जाती है कि आखिरी साइकल भी गिर सकती है।

क्या होता है कर्म से : आसक्तिभाव (लगाव) और अनासक्ति (निर्भाव) भाव से किए कर्म का परिणाम अलग-अलग होता है। कर्म से चित्त पर बंध बनता है- इसे कर्मबंध कहते हैं। यही बंध मृत्यु काल में बीज रूप बनकर अगले जन्म में फिर जड़ें पकड़ लेता है।

हिंदू धर्म ग्रंथों में कहा गया है कि जीवन एक चक्र है तो इस चक्र को समझना जरूरी है। आपकी सोच और आपके कर्म से निकलता है आपका भविष्य। इस कर्म चक्र को जो समझता है वही 'कर्म में कुशल' होने की भी सोचता है। कर्म में कुशल होने से ही जीवन में सफलता मिलती है।

कैसे बने कर्म में कुशल : कुछ भी प्राप्त करने के लिए कर्म करना ही होगा और कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा न रहे इसके लिए भी कर्म करना ही होगा। योग और गीता हमें यथार्थ में जीने का मार्ग दिखाते हैं। ज्यादातर लोग अतीत के पछतावे और भविष्‍य की कल्पना में जीते हैं।

क्रिया योग करें : योग कहता है कि वर्तमान में जीने से सजगता का जन्म होता है। यह सजगता ही हमारी सोच को सही दिशा प्रदान करती है। इसी से हम सही कर्म के लिए प्रेरित होते हैं। कर्म में कुशल होने के लिए योग के यम के ‍सत्य और नियम के तप और स्वाध्याय का अध्ययन करना चाहिए। इसी क्रिया योग से कर्म का बंधन कटता है।
- Anirudh

Friday, August 10, 2012

हर समस्या का करे अंत, श्रीकृष्ण के विशेष मंत्र

धन प्राप्ति के असरकारी सरल मंत्र
'कृं कृष्णाय नमः'

'ऊं श्रीं नमः श्रीकृष्णाय परिपूर्णतमाय स्वाहा'

'गोकुल नाथाय नमः'

प्रेम विवाह कराता है यह मंत्र
'ॐ नमो भगवते श्रीगोविन्दाय'

जिन कन्याओं का विवाह नहीं हो रहा हो या विवाह में विलंब हो रहा हो, उन कन्याओं को श्रीकृष्ण जैसे सुंदर पति की प्राप्ति के लिए माता कात्यायनी के इस मंत्र का जप वैसे ही करना चाहिए जैसे द्वापर युग में श्रीकृष्ण को पति रूप में पाने के लिए गोकुल की गोपियों ने किया था। 
कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि।
नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरू ते नम:।। 

शीघ्र मनपसंद विवाह के लिए श्रीकृष्ण के इस मंत्र का 108 बार जप करना चाहिए-
क्लीं कृष्णाय गोविंदाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा।'

जीवन में आने वाली विपरीत परिस्थितियों में विजय प्राप्त करने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के इस श्लोक को पढ़ना चाहिए-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।

Wednesday, August 8, 2012

आंखों के लिए 'देव ज्योतिमुद्रा योग'


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हाथों की 10 अंगुलियों से विशेष प्रकार की आकृतियां बनाना ही हस्त मुद्रा कही गई है। हाथों की सारी अंगुलियों में पांचों तत्व मौजूद होते हैं जैसे अंगूठे में अग्नि तत्व, तर्जनी अंगुली में वायु तत्व, मध्यमा अंगुली में आकाश तत्व, अनामिका अंगुली में पृथ्वी तत्व और कनिष्का अंगुली में जल तत्व।
जो व्यक्ति योगासन और प्राणायाम करने में अक्षम है उसके लिए हस्त मुद्राएं उपयो‍गी साबित हो सकती है बशर्ते की वह इसे नियमित करें। यह प्रस्तुत है नेत्र रोग में लाभदायक 'देव ज्योति मुद्रा' का परिचय।

इसला लाभ : देव ज्योतिमुद्रा सभी तरह के नेत्र रोग में लाभदायक सिद्धि हुई है। इस मुद्रा को करने से कम दिखना, आंखों में जाला और सूजन आदि जैसे रोग दूर हो जाते हैं। जिन बच्चों को कम उम्र मे ही चश्मा लग चुका हो वो अगर रोजाना देव ज्योतिमुद्रा का अभ्यास करें तो उनका चश्मा उतर सकता है।

मुद्रा विधि : अपने हाथ की तर्जनी अंगुली को मोड़कर अंगूठे की जड़ में लगाने से देव ज्योतिमुद्रा बन जाती है। यह कुछ कुछ वायु मुद्रा जैसी है। लगभग 40-60 सेकंड तक आप इसी मुद्रा में रहने का अभ्यास करें। सुबह-शाम चार से 6 बार कर सकते हैं।

योग अनुसार आसन और प्राणायाम की स्थिति को मुद्रा कहा जाता है। बंध, क्रिया और मुद्रा में आसन और प्राणायाम दोनों का ही कार्य होता है। योग में मुद्राओं को आसन और प्राणायाम से भी बढ़कर माना जाता है। आसन से शरीर की हडि्डयाँ लचीली और मजबूत होती है जबकि मुद्राओं से शारीरिक और मानसिक शक्तियों का विकास होता है। मुद्राओं का संबंध शरीर के खुद काम करने वाले अंगों और स्नायुओं से है।

जानें योग मुद्राओं को
मुद्राओं की संख्या को लेकर काफी मतभेद पाए जाते हैं। मुद्रा और दूसरे योगासनों के बारे में बताने वाला सबसे पुराना ग्रंथ 'घेरण्ड संहिता' है। हठयोग पर आधारित इस ग्रंथ को महर्षि घेरण्ड ने लिखा था। घेरंड में 25 और हठयोग प्रदीपिका में 10 मुद्राओं का उल्लेख मिलता है, लेकिन सभी योग के ग्रंथों की मुद्राओं को मिलाकर कुल 50 से 60 हस्त मुद्राएँ हैं।

महामुद्रा महाबंधो महावेधश्च, खेचरी।
उड्यान मूलबन्धश्च बंधो जालन्धरमिघ:।।
करणी विपरीताख्या बज्रोली शक्ति चालनम्।
इंदहि मुद्रादशंक जरामरण नाशनम्।

अर्थात महामुद्रा, महाबंध, महावेध, खेचरी, उड्डीयान बंध, मूलबंध, जालंधर बंध, विपरीत करणी, बज्रोली और शक्ति चालन। उक्त 10 मुद्राओं को सही तरीके से अभ्यास करने से बुढ़ापा जल्दी नहीं आ सकता।

इसके अलावा अलग-अलग ग्रंथों के अनुसार अलग-अलग मुद्राएँ और बंध होते हैं। योगमुद्रा को कुछ योगाचार्यों ने 'मुद्रा' के और कुछ ने 'आसनों' के समूह में रखा है। दो मुद्राओं को विशेष रूप से कुंडलिनी जागरण में उपयोगी माना गया है- सांभवी मुद्रा, खेचरी मुद्रा।

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मुद्राओं के प्रकार: 
मुख्‍यत: 6 आसन मुद्राएँ मानी गई हैं- 1.व्रक्त मुद्रा, 2.अश्विनी मुद्रा, 3.महामुद्रा, 4.योग मुद्रा, 5.विपरीत करणी मुद्रा, 6.शोभवनी मुद्रा। जगतगुरु रामानंद स्वामी पंच मुद्राओं को भी राजयोग का साधन मानते हैं, ये है- 1.चाचरी, 2.खेचरी, 3.भोचरी, 4.अगोचरी, 5.उन्न्युनी मुद्रा।

इसी प्रकार मुख्‍यत: दस हस्त मुद्राएँ मानी गई हैं: उक्त के अलावा हस्त मुद्राओं में प्रमुख दस मुद्राओं का महत्व है जो निम्न है: -(1)ज्ञान मुद्रा, (2)पृथवि मुद्रा, (3)वरुण मुद्रा, (4)वायु मुद्रा, (5)शून्य मुद्रा, (6)सूर्य मुद्रा, (7)प्राण मुद्रा, (8)लिंग मुद्रा, (9)अपान मुद्रा, (10)अपान वायु मुद्रा।

मुद्राओं के लाभ : कुंडलिनी या ऊर्जा स्रोत को जाग्रत करने के लिए मुद्राओं का अभ्यास सहायक सिद्ध होता है। कुछ मुद्राओं के अभ्यास से आरोग्य और दीर्घायु प्राप्त ‍की जा सकती है। इससे योगानुसार अष्ट सिद्धियों और नौ निधियों की प्राप्ति संभव है। यह संपूर्ण योग का सार स्वरूप है।

क्या होती है हस्त मुद्राएँ : हाथों की 10 अँगुलियों से विशेष प्रकार की आकृतियाँ बनाना ही हस्त मुद्रा कही गई है। हाथों की सारी अँगुलियों में पाँचों तत्व मौजूद होते हैं जैसे अँगूठे में अग्नि तत्व, तर्जनी अँगुली में वायु तत्व, मध्यमा अँगुली में आकाश तत्व, अनामिका अँगुली में पृथ्वी तत्व और कनिष्का अँगुली में जल तत्व।

अँगुलियों के पाँचों वर्ग से अलग-अलग विद्युत धारा बहती है। इसलिए मुद्रा विज्ञान में जब अँगुलियों का योगानुसार आपसी स्पर्श करते हैं, तब रुकी हुई या असंतुलित विद्युत बहकर शरीर की शक्ति को पुन: जाग देती है और हमारा शरीर निरोग होने लगता है। ये अद्भुत मुद्राएँ करते ही यह अपना असर दिखाना शुरू कर देती हैं।

हस्त मुद्रा के लाभ : मुद्रा संपूर्ण योग का सार स्वरूप है। इसके माध्यम से कुंडलिनी या ऊर्जा के स्रोत को जाग्रत किया जा सकता है। इससे अष्ट सिद्धियों और नौ निधियों की प्राप्ति संभव है।

सामान्यत: अलग-अलग मुद्राओं से अलग-अलग रोगों में लाभ मिलता है। मन में सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है। शरीर में कहीं भी यदि ऊर्जा में अवरोध उत्पन्न हो रहा है तो मुद्राओं से वह दूर हो जाता है और शरीर हल्का हो जाता है। जिस हाथ से ये मुद्राएँ बनाते हैं, शरीर के उल्टे हिस्से में उनका प्रभाव तुरंत ही नजर आना शुरू हो जाता है।
वेबदुनिया डेस्क