Monday, June 25, 2012

ध्यान की शुरुआत


ध्यान की शुरुआत के पूर्व की क्रिया- 'मैं क्यों सोच रहा हूं' इस पर ध्यान दें।' हमारा 'विचार' भविष्य और अतीत की हरकत है। विचार एक प्रकार का विकार है। वर्तमान में जीने से ही जागरूकता जन्मती है। भविष्य की कल्पनाओं और अतीत के सुख-दुख में जीना ध्यान विरूद्ध है।


1 : ओशो के अनुसार ध्यान शुरू करने से पहले आपका रेचन हो जाना जरूरी है अर्थात आपकी चेतना (होश) पर छाई धूल हट जानी जरूरी है। इसके लिए चाहें तो कैथार्सिस या योग का भस्त्रिका, कपालभाति प्राणायाम कर लें। आप इसके अलावा अपने शरीर को थकाने के लिए और कुछ भी कर सकते हैं।

2 : शुरुआत में शरीर की सभी हलचलों पर ध्यान दें और उसका निरीक्षण करें। बाहर की आवाज सुनें। आपके आस-पास जो भी घटित हो रहा है उस पर गौर करें। उसे ध्यान से सुनें।

3 : फिर धीरे-धीरे मन को भीतर की ओर मोड़े। विचारों के क्रिया-कलापों पर और भावों पर चुपचाप गौर करें। इस गौर करने या ध्यान देने के जरा से प्रयास से ही चित्त स्थिर होकर शांत होने लगेगा। भीतर से मौन होना ध्यान की शुरुआत के लिए जरूरी है।

4 : अब आप सिर्फ देखने और महसूस करने के लिए तैयार हैं। जैसे-जैसे देखना और सुनना गहराएगा आप ध्यान में उतरते जाएंगे।

ध्यान की शुरुआती विधि : प्रारंभ में सिद्धासन में बैठकर आंखें बंद कर लें और दाएं हाथ को दाएं घुटने पर तथा बाएं हाथ को बाएं घुटने पर रखकर, रीढ़ सीधी रखते हुए गहरी श्वास लें और छोड़ें। सिर्फ पांच मिनट श्वासों के इस आवागमन पर ध्यान दें कि कैसे यह श्वास भीतर कहां तक जाती है और फिर कैसे यह श्वास बाहर कहां तक आती है।

पूर्णत: भीतर कर मौन का मजा लें। मौन जब घटित होता है तो व्यक्ति में साक्षी भाव का उदय होता है। सोचना शरीर की व्यर्थ क्रिया है और बोध करना मन का स्वभाव है।

ध्यान की अवधि : उपरोक्त ध्यान विधि को नियमित 30 दिनों तक करते रहें। 30 दिनों बाद इसकी समय अवधि 5 मिनट से बढ़ाकर अगले 30 दिनों के लिए 10 मिनट और फिर अगले 30 दिनों के लिए 20 मिनट कर दें। शक्ति को संवरक्षित करने के लिए 90 दिन काफी है। इसे जारी रखें।

सावधानी : ध्यान किसी स्वच्छ और शांत वातावरण में करें। ध्यान करते वक्त सोना मना है। ध्यान करते वक्त सोचना बहुत होता है। लेकिन यह सोचने पर कि 'मैं क्यों सोच रहा हूं' कुछ देर के लिए सोच रुक जाती है। सिर्फ श्वास पर ही ध्यान दें और संकल्प कर लें कि 20 मिनट के लिए मैं अपने दिमाग को शून्य कर देना चाहता हूं।

अंतत: ध्यान का अर्थ ध्यान देना, हर उस बात पर जो हमारे जीवन से जुड़ी है। शरीर पर, मन पर और आस-पास जो भी घटित हो रहा है उस पर। विचारों के क्रिया-कलापों पर और भावों पर। इस ध्यान देने के जारा से प्रयास से ही हम अमृत की ओर एक-एक कदम बढ़ सकते है।

ध्यान और विचार : जब आंखें बंद करके बैठते हैं तो अक्सर यह शिकायत रहती है कि जमाने भर के विचार उसी वक्त आते हैं। अतीत की बातें या भविष्य की योजनाएं, कल्पनाएं आदि सभी विचार मक्खियों की तरह मस्तिष्क के आसपास भिनभिनाते रहते हैं। इससे कैसे निजात पाएं? माना जाता है कि जब तक विचार है तब तक ध्यान घटित नहीं हो सकता।

अब कोई मानने को भी तैयार नहीं होता कि निर्विचार भी हुआ जा सकता है। कोशिश करके देखने में क्या बुराई है। ओशो कहते हैं कि ध्यान विचारों की मृत्यु है। आप तो बस ध्यान करना शुरू कर दें। जहां पहले 24 घंटे में चिंता और चिंतन के 30-40 हजार विचार होते थे वहीं अब उनकी संख्या घटने लगेगी। जब पूरी घट जाए तो बहुत बड़ी घटना घट सकती है।
अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

Saturday, June 23, 2012

ध्यान की विधियां


ध्यान करने की अनेकों विधियों में एक विधि यह है कि ध्यान किसी भी विधि से किया नहीं जाता, हो जाता है। ध्यान की योग और तंत्र में हजारों विधियां बताई गई है। हिन्दू, जैन, बौद्ध तथा साधु संगतों में अनेक विधि और क्रियाओं का प्रचलन है। विधि और क्रियाएं आपकी शारीरिक और मानसिक तंद्रा को तोड़ने के लिए है जिससे की आप ध्यानपूर्ण हो जाएं। यहां प्रस्तुत है ध्यान की सरलतम विधियां, लेकिन चमत्कारिक।


विशेष : ध्‍यान की हजारों विधियां हैं। भगवान शंकर ने माँ पार्वती को 112 विधियां बताई थी जो 'विज्ञान भैरव तंत्र' में संग्रहित हैं। इसके अलावा वेद, पुराण और उपनिषदों में ढेरों विधियां है। संत, महात्मा विधियां बताते रहते हैं। उनमें से खासकर 'ओशो रजनीश' ने अपने प्रवचनों में ध्यान की 150 से ज्यादा विधियों का वर्णन किया है।

1- सिद्धासन में बैठकर सर्वप्रथम भीतर की वायु को श्वासों के द्वारा गहराई से बाहर निकाले। अर्थात रेचक करें। फिर कुछ समय के लिए आंखें बंदकर केवल श्वासों को गहरा-गहरा लें और छोड़ें। इस प्रक्रिया में शरीर की दूषित वायु बाहर निकलकर मस्तिष्‍क शांत और तन-मन प्रफुल्लित हो जाएगा। ऐसा प्रतिदिन करते रहने से ध्‍यान जाग्रत होने लगेगा।

2- सिद्धासन में आंखे बंद करके बैठ जाएं। फिर अपने शरीर और मन पर से तनाव हटा दें अर्थात उसे ढीला छोड़ दें। चेहरे पर से भी तनाव हटा दें। बिल्कुल शांत भाव को महसूस करें। महसूस करें कि आपका संपूर्ण शरीर और मन पूरी तरह शांत हो रहा है। नाखून से सिर तक सभी अंग शिथिल हो गए हैं। इस अवस्था में 10 मिनट तक रहें। यह काफी है साक्षी भाव को जानने के लिए।

3- किसी भी सुखासन में आंखें बंदकर शांत व स्थिर होकर बैठ जाएं। फिर बारी-बारी से अपने शरीर के पैर के अंगूठे से लेकर सिर तक अवलोकन करें। इस दौरान महसूस करते जाएं कि आप जिस-जिस अंग का अलोकन कर रहे हैं वह अंग स्वस्थ व सुंदर होता जा रहा है। यह है सेहत का रहस्य। शरीर और मन को तैयार करें ध्यान के लिए।

4. चौथी विधि क्रांतिकारी विधि है जिसका इस्तेमाल अधिक से अधिक लोग करते आएं हैं। इस विधि को कहते हैं साक्षी भाव या दृष्टा भाव में रहना। अर्थात देखना ही सबकुछ हो। देखने के दौरान सोचना बिल्कुल नहीं। यह ध्यान विधि आप कभी भी, कहीं भी कर सकते हैं। सड़क पर चलते हुए इसका प्रयोग अच्छे से किया जा सकता है।

देखें और महसूस करें कि आपके मस्तिष्क में 'विचार और भाव' किसी छत्ते पर भिनभिना रही मधुमक्खी की तरह हैं जिन्हें हटाकर 'मधु' का मजा लिया जा सकता है।

उपरोक्त तीनों ही तरह की सरलतम ध्यान विधियों के दौरान वातावरण को सुगंध और संगीत से तरोताजा और आध्यात्मिक बनाएं। चौथी तरह की विधि के लिए सुबह और शाम के सुहाने वातावरण का उपयोग करें।

अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

Tuesday, June 19, 2012

ध्यान


'भीतर से जाग जाना ध्यान है। सदा निर्विचार की दशा में रहना ही ध्यान है।'

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जापानी का झेन और चीन का च्यान यह दोनों ही शब्द ध्‍यान के अप्रभंश है। अंग्रेजी में इसे मेडिटेशन कहते हैं, लेकिन अवेयरनेस शब्द इसके ज्यादा नजदीक है। हिन्दी का बोध शब्द इसके करीब है। ध्यान का मूल अर्थ है जागरूकता, अवेयरनेस, होश, साक्ष‍ी भाव और दृष्टा भाव।


योग का आठवां अंग ध्यान अति महत्वपूर्ण हैं। एक मात्र ध्यान ही ऐसा तत्व है कि उसे साधने से सभी स्वत: ही सधने लगते हैं, लेकिन योग के अन्य अंगों पर यह नियम लागू नहीं होता। ध्यान दो दुनिया के बीच खड़े होने की स्थिति है।

ध्यान की परिभाषा : तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम।। 3-2 ।।-योगसूत्र अर्थात- जहां चित्त को लगाया जाए उसी में वृत्ति का एकतार चलना ध्यान है। धारणा का अर्थ चित्त को एक जगह लाना या ठहराना है, लेकिन ध्यान का अर्थ है जहां भी चित्त ठहरा हुआ है उसमें वृत्ति का एकतार चलना ध्यान है। उसमें जाग्रत रहना ध्यान है।

ध्यान का अर्थ : ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं होता। एकाग्रता टॉर्च की स्पॉट लाइट की तरह होती है जो किसी एक जगह को ही फोकस करती है, लेकिन ध्यान उस बल्ब की तरह है जो चारों दिशाओं में प्रकाश फैलाता है। आमतौर पर आम लोगों का ध्यान बहुत कम वॉट का हो सकता है, लेकिन योगियों का ध्यान सूरज के प्रकाश की तरह होता है जिसकी जद में ब्रह्मांड की हर चीज पकड़ में आ जाती है।

क्रिया नहीं है ध्यान : बहुत से लोग क्रियाओं को ध्यान समझने की भूल करते हैं- जैसे सुदर्शन क्रिया, भावातीत ध्यान और सहज योग ध्यान। दूसरी ओर विधि को भी ध्यान समझने की भूल की जा रही है।

बहुत से संत, गुरु या महात्मा ध्यान की तरह-तरह की क्रांतिकारी विधियां बताते हैं, लेकिन वे यह नहीं बताते हैं कि विधि और ध्यान में फर्क है। क्रिया और ध्यान में फर्क है। क्रिया तो साधन है साध्य नहीं। क्रिया तो ओजार है। क्रिया तो झाड़ू की तरह है।

आंख बंद करके बैठ जाना भी ध्यान नहीं है। किसी मूर्ति का स्मरण करना भी ध्यान नहीं है। माला जपना भी ध्यान नहीं है। अक्सर यह कहा जाता है कि पांच मिनट के लिए ईश्वर का ध्यान करो- यह भी ध्यान नहीं, स्मरण है। ध्यान है क्रियाओं से मुक्ति। विचारों से मुक्ति।


ध्यान का स्वरूप : हमारे मन में एक साथ असंख्य कल्पना और विचार चलते रहते हैं। इससे मन-मस्तिष्क में कोलाहल-सा बना रहता है। हम नहीं चाहते हैं फिर भी यह चलता रहता है। आप लगातार सोच-सोचकर स्वयं को कम और कमजोर करते जा रहे हैं। ध्यान अनावश्यक कल्पना व विचारों को मन से हटाकर शुद्ध और निर्मल मौन में चले जाना है।


ध्यान जैसे-जैसे गहराता है व्यक्ति साक्षी भाव में स्थित होने लगता है। उस पर किसी भी भाव, कल्पना और विचारों का क्षण मात्र भी प्रभाव नहीं पड़ता। मन और मस्तिष्क का मौन हो जाना ही ध्यान का प्राथमिक स्वरूप है। विचार, कल्पना और अतीत के सुख-दुख में जीना ध्यान विरूद्ध है।

ध्यान में इंद्रियां मन के साथ, मन बुद्धि के साथ और बुद्धि अपने स्वरूप आत्मा में लीन होने लगती है। जिन्हें साक्षी या दृष्टा भाव समझ में नहीं आता उन्हें शुरू में ध्यान का अभ्यास आंख बंद करने करना चाहिए। फिर अभ्यास बढ़ जाने पर आंखें बंद हों या खुली, साधक अपने स्वरूप के साथ ही जुड़ा रहता है और अंतत: वह साक्षी भाव में स्थिति होकर किसी काम को करते हुए भी ध्यान की अवस्था में रह सकता है।
अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

Sunday, June 3, 2012

आदमी भूल गया है प्रकृति के साथ रहना


आदमी भूल गया है प्रकृति के साथ रहना इसीलिए बीमारियों की गिरफ्तर में आ जाता है जबकि शरीर की प्रकृति नहीं है बीमार होना। सोचे जो जंगली पशु या पक्षी हैं वे कौन-से अस्पताल में जाते हैं। जंगल में रहने वाले आदिवासियों का आपने कभी अस्पताल में देखा? जीवन को खोने से तो अच्छा है कि ठेठ गंवार, देहती या आदिवासी बनकर स्वस्थ जीवन का मजा लिया जाए। इससे रोग और शोक भी दूर भागने लगेंगे।

तीर्थंकर, तपस्वी या बुद्धपुरुष या तो पहाड़ पर अपना ढेरा जमाते थे या जंगल में जंगली जीवनशैली बिताते थे। वहां रहकर वह पूरी तरह से निरोगी बने रहते थे। आज भी यदि जंगली आदिवासियों का अध्ययन करें तो पाएंगे कि वे शहरी मानव से कहीं ज्यादा हष्ट-पुष्ट है, जबकि वे न तो जिम जाते हैं और न ही योग करते हैं, फिर भी वे जंगली बने रहकर सेहतमंद हैं। 

जब हम शहर में शहरी जीवनशैली ‍जीने लगते हैं तो वहां की धूल, धुंआ और धूप हमारे स्नायुतंत्र, रक्त परिवहन तंत्र, श्वास-संस्थान तथा पाचनतंत्र को कमजोर कर देती है। ऐसे में स्वाभाविक रूप से ही हमारा बीमार होना तय हो जाता है। योग आपके उक्त सभी संस्थानों को फिर से प्रकृति प्रदत्त बनाने के लिए कुछ विधियां बताता है।

पंच कोष : हम पांच कोष का एक जोड़ हैं- अन्नमय कोष जिसे हमारा शरीर कहते हैं। प्राणमय कोष जिसे हमारे शरीर में स्थिति वायु कहते हैं जो हमारी श्वांस प्रक्रिया है। मनोमय कोष जो हमारा मन है। तीनों कोष यदि स्वस्थ, पुष्ट और संतुष्ट हैं तभी हमारा विज्ञानमय कोष और आनंदमय कोष स्वस्थ रह सकता है। विज्ञानमय अर्थात बुद्धि और चित्त और आनंदमय अर्थात जहां हम स्थित हैं।

विशेष : शरीर के लिए आसन है। प्राणों के लिए प्राणायाम है और मन के लिए ध्यान। शरीर के लिए यौगिक आहार, आसान और विहार को अपनाएं। वायु की शुद्धता शरीर, प्राश और मन के लिए अत्यंत आवश्यक है। इसकी शुद्धता के लिए प्राणायम का सहारा लें। प्राणायम से दूषित वायु का निष्कासन और पवित्र वायु का संचार होगा। अंतत: मन को बेचैनी, चिंता और उत्तेजना से बचाने के लिए ध्यान जरूर करें।

अब जंगली बनो : जंगली बने रहने का अर्थ है प्रकृति के नजदीक रहना और जंगलीपन न छोड़ना। जब आप बच्चे थे तो निश्‍चि ही जंगली थे। सभ्यता और नैतिकता ने आपको सभी से दूर कर दिया।

बच्चे थे तो जोर से हंसते, जोर से खांसते और जोर से छींकते थे, लेकिन अब आप सभ्य बन गए हैं। यह हंसना, खांसने और छींकना प्राणायाम का ही एक हिस्सा है। इससे जहां दूषित वायु बाहर निकल जाती है वहीं रक्त संचारण फिर से सही गति पकड़ लेता है और हां नेचुरल कॉल्स को आप कभी नहीं रोकें। 

अब आसन की बात करते हैं- बच्चे थे तो गुलाटी लगाते, दौड़ते-कूदते, नाचते-झूमते, मुंह चिढ़ाते और वह सारी हरकते करते थे जो एक बंदर एक बिल्ली और एक कुत्ता कर सकता है। ऐसा करने से आपकी मांस-पेशियों में सुचारु रूप से रक्तसंचार होता रहता था, लेकिन अब? 

आसन या प्राणायाम की सभी विधियां पशु और पक्षियों के रहन-सहन को देखकर ही बनाई गई हैं। वह इसलिए कि आपका जंगलीपन बरकरार रहे। सोचे मत्स्यासन अर्थात मछली जैसी आकृति बनाने की हमें क्या जरूरत है।

सोचे जब कुत्ते को गर्मी लगती है तो वह अपनी जबान बाहर निकालकर कैसे भ्रस्तिका और शीतली कर लेता है। बिल्ली जब सोकर उठती है तो अपने पैरों को नजदीक लाकर उसकी नसों को तानती है जिससे उसकी पीठ का भाग ऊंचा उठ जाता है। आप भी ऐसा करते थे। इसे मार्जाय आसन कहते हैं जिससे स्नायुतंत्र पुन: सक्रिय होकर स्फूर्तिदायक बन जाते हैं।

अब हमनें आपको जंगली बनने की कुंजी दे दी है। आसन, प्राणायाम और ध्यान न भी करें तो कम से कम अपना जंगलीपन बरकरार रखें। आदमी हो तो आदमी की तरह रहो अंग्रेजों की तरह नहीं।a

योगासन : योग के आसन


चित्त को स्थिर रखने वाले तथा सुख देने वाले बैठने के प्रकार को आसन कहते हैं। आसन अनेक प्रकार के माने गए हैं। योग में यम और नियम के बाद आसन का तीसरा स्थान है


आसन का उद्‍येश्य : आसनों का मुख्य उद्देश्य शरीर के मल का नाश करना है। शरीर से मल या दूषित विकारों के नष्ट हो जाने से शरीर व मन में स्थिरता का अविर्भाव होता है। शांति और स्वास्थ्य लाभ मिलता है। अत: शरीर के स्वस्थ रहने पर मन और आत्मा में संतोष मिलता है।

आसन और व्यायाम : आसन एक वैज्ञानिक पद्धति है। आसन और अन्य तरह के व्यायामों में फर्क है। आसन जहां हमारे शरीर की प्रकृति को बनाए रखते हैं वहीं अन्य तरह के व्यायाम इसे बिगाड़ देते हैं।

'आसनानि समस्तानियावन्तों जीवजन्तव:। चतुरशीत लक्षणिशिवेनाभिहितानी च।'- अर्थात संसार के समस्त जीव जन्तुओं के बराबर ही आसनों की संख्या बताई गई है।

इस तरह हुआ आसनों का आविष्कार:-
1.पशु-पक्षी आसन : पहले प्रकार के वे आसन जो पशु-पक्षियों के उठने-बैठने, चलने-फिरने या उनकी आकृति के आधार पर बनाए गए हैं जैसे- वृश्चिक, भुंग, मयूर, शलभ, मत्स्य, गरुढ़, सिंह, बक, कुक्कुट, मकर, हंस, काक, मार्जाय आदि।

2.वस्तु आसन : दूसरी तरह के आसन जो विशेष वस्तुओं के अंतर्गत आते हैं जैसे- हल, धनुष, चक्र, वज्र, शिला, नौका आदि।

3.प्रकृति आसन : तीसरी तरह के आसन वनस्पति और वृक्षों आदि पर आधारित हैं जैसे- वृक्षासन, पद्मासन, लतासन, ताड़ासन, पर्वतासन आदि।

4.अंग आसन : चौथी तरह के आसन विशेष अंगों को पुष्ट करने वाले तथा अंगों के नाम से सं‍बंधित होते हैं-जैसे शीर्षासन, एकपाद ग्रीवासन, हस्तपादासन, सर्वांगासन, कंधरासन, कटि चक्रासन, पादांगुष्ठासन आदि।

5.योगी आसन : पांचवीं तरह के वे आसन हैं जो किसी योगी या भगवान के नाम पर आधारित हैं- जैसे महावीरासन, ध्रुवासन, मत्स्येंद्रासन, अर्धमत्स्येंद्रासन, हनुमानासन, भैरवासन आदि।

6.अन्य आसन : इसके अलावा कुछ आसन ऐसे हैं- जैसे चंद्रासन, सूर्यनमस्कार, कल्याण आसन आदि। इन्हें अन्य आसनों के अंतर्गत रखा गया है।

आसन करने के पूर्व : सूक्ष्म व्यायाम (अंग संचालन) के बाद ही योग के आसनों को किया जाता है। योग प्रारम्भ करने के पूर्व अंग-संचालन करना आवश्यक है। इससे अंगों की जकड़न समाप्त होती है तथा आसनों के लिए शरीर तैयार होता है।

आसनों को सीखना प्रारम्भ करने से पूर्व कुछ आवश्यक सावधानियों पर ध्‍यान देना जरूरी है। आसन प्रभावकारी तथा लाभदायक तभी हो सकते हैं, जबकि उसको उचित रीति से किया जाए। आसनों को किसी योग्य योग चिकित्सक की देख-रेख में करें तो ज्यादा अच्छा होगा।
आसन के मुख्य प्रकार : 1.बैठकर किए जाने वाले आसन, 2.पीठ के बाल लेटकर किए जाने वाले आसन, 3.पेट के बाल लेटकर किए जाने वाले आसन और 4.खड़े होकर किए जाने वाले आसन।
उक्त चार प्रकार के आसनों में से कुछ आसन ऐसे हैं जिन्हें बैठकर, लेटकर और खड़े रहकर तीनों ही तरीके से किया जाता है। इनमें से कुछ आसन ऐसे भी हैं जिन्हें हाथ के पंजों के बल या पैर के घुटनों के बल पर किया जाता है।
1.बैठकर : पद्मासन, वज्रासन, सिद्धासन, मत्स्यासन, वक्रासन, अर्ध-मत्स्येन्द्रासन, पूर्ण मत्स्येन्द्रासन, गोमुखासन, पश्चिमोत्तनासन, ब्राह्म मुद्रा, उष्ट्रासन, योगमुद्रा, उत्थीत पद्म आसन, पाद प्रसारन आसन, द्विहस्त उत्थीत आसन, बकासन, कुर्म आसन, पाद ग्रीवा पश्चिमोत्तनासन, बध्दपद्मासन, सिंहासन, ध्रुवासन, जानुशिरासन, आकर्णधनुष्टंकारासन, बालासन, गोरक्षासन, पशुविश्रामासन, ब्रह्मचर्यासन, उल्लुक आसन, कुक्कुटासन, उत्तान कुक्कुटासन, चातक आसन, पर्वतासन, काक आसन, वातायनासन, पृष्ठ व्यायाम आसन-1, भैरवआसन, भरद्वाजआसन, बुद्धपद्मासन, कूर्मासन, भूनमनासन, शशकासन, गर्भासन, मंडूकासन, सुप्त गर्भासन, योगमुद्रासन आदि।
2.पीठ के बल लेटकर : अर्धहलासन, हलासन, सर्वांगासन, विपरीतकर्णी आसन, पवनमुक्तासन, नौकासन, दीर्घ नौकासन, शवासन, पूर्ण सुप्त वज्रासन, सेतुबंध आसन, तोलांगुलासन, प्राणमुक्त आसन, कर्ण पीड़ासन, उत्तानपादासन, चक्रासन, कंधरासन, स्कन्धपादासन, मर्कटासन, ग्रीवासन, एकपादग्रीवासन, द्विपादग्रीवासन, कटी व्यायाम आसन, पृष्ठ व्यायाम आसन-2 आदि।
3.पेट के बल लेटकर : मकरासन, धनुरासन, भुजंगासन, शलभासन, विपरीत नौकासन, खग आसन, चतुरंग दंडासन, कोनासन आदि।
4.खड़े होकर : ताड़ासन, वृक्षासन, अर्धचंद्रमासन, अर्धचक्रासन, दो भुज कटिचक्रासन, चक्रासन, पाद्पश्चिमोत्तनासन, गरुढ़ासन, चंद्रनमस्कार, चंद्रासन, उर्ध्व उत्थान आसन, पाद संतुलन आसन, मेरुदंड वक्का आसन, अष्टावक्र आसन, बैठक आसन, उत्थान बैठक आसन, अंजनेय आसन, त्रिकोणासन, नटराज आसन, एक पाद विराम आसन, एकपाद आकर्षण आसन, उत्कटासन, उत्तानासन, कटी उत्तानासन, जानु आसन, उत्थान जानु आसन, हस्तपादांगुष्ठासन, पादांगुष्ठासन, ऊर्ध्वताड़ासन, पादांगुष्ठानासास्पर्शासन, कल्याण आसन आदि।
5.अन्य : शीर्षासन, मयुरासन, सूर्य नमस्कार, वृश्चिकासन, चंद्र नमस्कार, लोलासन, अधोमुखश्वानासन, मोक्ष आसन, अदवासन, अग्नीस्तंभासन, अनंतासन, अंजनेयासन, योगनिद्रा, मार्जारासन, अनुवित्तासन, अश्व संचालन आसन, भुजपीड़ासन, बिदालासन, बंधासन, चक्र बंधासन, चक्र वज्रासन, चकोरआसन, द्रधासन, द्विपाद परिवर्त्ता कोंडियासन उपधानासन, द्विचक्रिकासन, पादवृत्तासन, पॄष्ठतानासन, प्रसृतहस्त शंखासन, पक्ष्यासन आदि।

आत्मा के पाँच कोष और चार स्तर


'एक आत्मा है जो अन्नरसमय है-एक अन्य आंतर आत्मा है, प्राणमय जो कि उसे पूर्ण करता है- एक अन्य आंतर आत्मा है, मनोमय-एक अन्य आंतर आत्मा है, विज्ञानमय (सत्यज्ञानमय) -एक अन्य आंतर आत्मा है, आनंदमय।'-तैत्तिरीयोपनिषद 

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भावार्थ : जड़ में प्राण; प्राण में मन; मन में विज्ञान और विज्ञान में आनंद। यह चेतना या आत्मा के रहने के पाँच स्तर हैं। आत्मा इनमें एक साथ रहती है। यह अलग बात है कि किसे किस स्तर का अनुभव होता है। ऐसा कह सकते हैं कि यह पाँच स्तर आत्मा का आवरण है। कोई भी आत्मा अपने कर्म प्रयास से इन पाँचों स्तरों में से किसी भी एक स्तर का अनुभव कर उसी के प्रति आसक्त रहती है। सर्वोच्च स्तर आनंदमय है और निम्न स्तर जड़।

जो भी दिखाई दे रहा है उसे जड़ कहते हैं और हमारा शरीर जड़ जगत का हिस्सा है। जो लोग शरीर के ही तल पर जी रहे हैं वह जड़ बुद्धि कहलाते हैं, उनके जीवन में भोग और संभोग का ही महत्व है। शरीर में ही प्राणवायु है जिससे व्यक्ति भावुक, ईर्ष्यालु, क्रोधी या दुखी होता है। प्राण में ही स्थिर है मन। मन में जीने वाला ही मनोमयी है। मन चंचल है। जो रोमांचकता, कल्पना और मनोरंजन को पसंद करता है ऐसा व्यक्ति मानसिक है।

मन में ही स्थित है विज्ञानमय कोष अर्थात ‍बुद्धि का स्तर। जो विचारशील और कर्मठ है वही विज्ञानमय कोष के स्तर में है। इस ‍विज्ञानमय कोष के भी कुछ उप-स्तर है। विज्ञानमय कोष में ही स्थित है-आनंदमय कोष। यही आत्मवानों की ‍तुरीय अवस्था है। इसी ‍स्तर में जीने वालों को भगवान, अरिहंत या संबुद्ध कहा गया है। इस स्तर में शुद्ध आनंद की अनुभूति ही बच जाती है। जहाँ व्यक्ति परम शक्ति का अनुभव करता है। इसके भी उप-स्तर होते हैं। और जो इस स्तर से भी मुक्त हो जाता है-वही ब्रह्मलीन कहलाता है।

ईश्वर एक ही है किंतु आत्माएँ अनेक। यह अव्यक्त, अजर-अमर आत्मा पाँच कोषों को क्रमश: धारण करती है, जिससे की वह व्यक्त (दिखाई देना) और जन्म-मरण के चक्कर में उलझ जाती है। यह पंच कोष ही पंच शरीर है। कोई आत्मा किस शरीर में रहती है यह उसके ईश्‍वर समर्पण और संकल्प पर निर्भर करता है।

चार स्तर : छांदोग्य उपनिषद (8-7) के अनुसार आत्मा चार स्तरों में स्वयं के होने का अनुभव करती है- (1)जाग्रत (2) स्वप्न (3) सुषुप्ति और (4) तुरीय अवस्था।

इसमें तीन स्तरों का अनुभव प्रत्येक जन्म लिए हुए मनुष्य को अनुभव होता ही है लेकिन चौथे स्तर में वही होता है जो ‍आत्मवान हो गया है या जिसने मोक्ष पा लिया है। वह शुद्ध तुरीय अवस्था में होता है जहाँ न तो जाग्रति है, न स्वप्न, न सु‍षुप्ति ऐसे मनुष्य सिर्फ दृष्टा होते हैं-जिसे पूर्ण-जागरण की अवस्था भी कहा जाता है।

A. अनुभूति के स्तर:- जाग्रत, स्वप्न, सु‍षुप्ति और तुरीय अवस्था।
B. व्यक्त (प्रकट) होने के कोष:- जड़, प्राण, मन, बुद्धि और आनंद।

अंतत: जड़ या अन्नरसमय कोष दृष्टिगोचर होता है। प्राण और मन का अनुभव होता है किंतु जाग्रत मनुष्य को ही विज्ञानमय कोष समझ में आता है। जो विज्ञानमय कोष को समझ लेता है वही उसके स्तर को भी समझता है।

अभ्यास और जाग्रति द्वारा ही उच्च स्तर में गति होती है। अकर्मण्यता से नीचे के स्तर में चेतना गिरती जाती है। इस प्रकृति में ही उक्त पंच कोषों में आत्मा विचरण करती है किंतु जो आत्मा इन पाँचों कोष से मुक्त हो जाती है ऐसी मुक्तात्मा को ही ब्रह्मलीन कहा जाता है। यही मोक्ष की अवस्था है।

इस तरह वेदों में जीवात्मा के पाँच शरीर बताए गए हैं- जड़, प्राण, मन, विज्ञान और आनंद। इस पाँच शरीर या कोष के अलग-अलग ग्रंथों में अलग-अलग नाम हैं जिसे वेद ब्रह्म कहते हैं उस ईश्वर की अनुभूति सिर्फ वही आत्मा कर सकती है जो आनंदमय शरीर में स्थित है। देवता, दानव, पितर और मानव इस हेतु सक्षम नहीं।
वेद में सृष्टि की उत्पत्ति, विकास, विध्वंस और आत्मा की गति को पंचकोश के क्रम में समझाया गया है। पंचकोश ये हैं- 1.अन्नमय, 2.प्राणमय, 3.मनोमय, 4.विज्ञानमय और 5.आनंदमय। उक्त पंचकोश को ही पाँच तरह का शरीर भी कहा गया है। वेदों की उक्त धारणा विज्ञान सम्मत है, जो यहाँ सरल भाषा में प्रस्तुत है।

जब हम हमारे शरीर के बारे में सोचते हैं तो यह पृथवि अर्थात जड़ जगत का हिस्सा है। इस शरीर में प्राणवायु का निवास है। प्राण के अलावा शरीर में पाँचों इंद्रियाँ (आँख, नाक, कान, जीभ और स्पर्शानुभूति) है जिसके माध्यम से हमें 'मन' और मस्तिष्क के होने का पता चलता है। मन के अलावा और भी सूक्ष्म चीज होती है जिसे बुद्धि कहते हैं जो गहराई से सब कुछ समझती और अच्छा-बुरा जानने का प्रयास करती है, इसे ही 'सत्यज्ञानमय' कहा गया है।

मानना नहीं, यदि यह जान ही लिया है कि मैं आत्मा हूँ शरीर नहीं, प्राण नहीं, मन नहीं, विचार नहीं तब ही मोक्ष का द्वार ‍खुलता है। ऐसी आत्मा 'आनंदमय' कोश में स्थित होकर मुक्त हो जाती है। यहाँ प्रस्तुत है अन्नमय कोश का परिचय।

अन्नमय कोश : सम्पूर्ण दृश्यमान जगत, ग्रह-नक्षत्र, तारे और हमारी यह पृथवि, आत्मा की प्रथम अभिव्यक्ति है। यह दिखाई देने वाला जड़ जगत जिसमें हमारा शरीर भी शामिल है यही अन्न से बना शरीर अन्नरसमय कहलाता हैं। इसीलिए वैदिक ऋषियों ने अन्न को ब्रह्म कहा है।

यह प्रथम कोश है जहाँ आत्मा स्वयं को अभिव्यक्त करती रहती है। शरीर कहने का मतलब सिर्फ मनुष्य ही नहीं सभी वृक्ष, लताओं और प्राणियों का शरीर।‍ जो आत्मा इस शरीर को ही सब कुछ मानकर भोग-विलास में निरंतर रहती है वही तमोगुणी कहलाती है। इस शरीर से बढ़कर भी कुछ है। इस जड़-प्रकृति जगत से बढ़कर भी कुछ है।

जड़ का अस्तित्व मानव से पहिले का है। प्राणियों से पहिले का है। वृक्ष और समुद्री लताओं से पहिले का है। पहिले पाँच तत्वों (अग्नि, जल, वायु, पृथवि, आकाश) की सत्ता ही विद्यमान थी। इस जड़ को ही शक्ति कहते हैं- अन्न रसमय कहते हैं। यही आत्मा की पूर्ण सुप्तावस्था है। यह आत्मा की अधोगति है। फिर जड़ में प्राण, मन और बुद्धि आदि सुप्त है। इस शरीर को पुष्‍ट और शुद्ध करने के लिए यम, नियम और आसन का प्रवधान है।

इस अन्नमय कोश को प्राणमय कोश ने, प्राणमय को मनोमय, मनोमय को विज्ञानमय और विज्ञानमय को आनंदमय कोश ने ढाँक रखा है। यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह क्या सिर्फ शरीर के तल पर ही जी रहा है या कि उससे ऊपर के आवरणों में। किसी तल पर जीने का अर्थ है कि हमारी चेतना या जागरण की स्थिति क्या है। जड़बुद्धि का मतलब ही यही है वह इतना बेहोश है कि उसे अपने होने का होश नहीं जैसे पत्थर और पशु।
प्राणमय कोश : जड़ में ही प्राण के सक्रिय होने से अर्थात वायु तत्व के सक्रिय होने से प्राण धीरे-धीरे जाग्रत होने लगा। प्रथम वह समुद्र के भीतर लताओं, वृक्षों और न दिखाई देने वाले जीवों के रूप में फिर क्रमश: जलचर, उभयचर, थलचर और फिर नभचर प्रणियों के रूप में अभिव्यक्त हुआ।

जहाँ भी साँस का आवागमन दृष्टिगोचर होता है, महसूस होता है वहाँ प्राण सक्रिय है। आत्मा ने स्वयं को स्थूल से ऊपर उठाकर 'प्राण' में अभिव्यक्त किया। जब आत्मा ने स्वयं को स्थूल (जड़) में सीमित पाया तब शुरू हुई विकास की प्रक्रिया। इस तरह पृथवि में स्थूल का एक भाग जाग्रत या सक्रिय होकर प्राणिक होने लगा।

यह प्राण ही है जिसके अवतरण से जड़ जगत में हलचल हुई और द्रुत गति से आकार-प्रकार का युग प्रारम्भ हुआ। प्रकृति भिन्न-भिन्न रूप धारण करती गई। प्राण को ही जीवन कहते हैं। प्राण के निकल जाने पर प्राणी मृत अर्थात जड़ माना जाता है। यह प्राणिक शक्ति ही संपूर्ण ब्रह्मांड की आयु और वायु है अर्थात प्राणवायु ही आयु है, स्वास्थ्य है।

पत्थर, पौधे, पशु और मानव के प्राण में जाग्रति और सक्रियता का अंतर है। देव, मनुष्य, पशु आदि सभी प्राण के कारण चेष्ठावान है। मानव में मन ज्यादा सक्रिय है किंतु जलचर, उभयचर, नभचर और पशुओं में प्राण ज्यादा सक्रिय है, इसीलिए पशुओं को प्राणी भी कहा जाता है। ऐसा तैतरिय उपषिद के ऋषि कहते हैं। उपनिषद वेद का हिस्सा है। 

ईर्ष्या, द्वैष, संघर्ष, वासना, आवेग, क्रोध और इच्छा यह प्राण के स्वाभाविक गुण है। जो मानव इन गुणों से परिपूर्ण है वह प्राणी के अतिरिक्त कुछ नहीं। प्राण को पुष्ट और शुद्ध करने के लिए 'प्राणायाम' का प्रवधान है।
मनोमय कोश : यह मनुष्य प्रकृति की अब तक की शुद्धतम कृति माना गया है। यह प्रकृति के सभी आकारों में अब तक का शुद्ध व ऐसा सुविधाजन आकार है जहाँ 'आत्मा' रहकर अपने को अन्यों से अधिक स्वतंत्र महसूस करती है। दूसरी ओर यह एक ऐसा आकार है जहाँ 'मन' का अवतरण आसान है।

उक्त आकार में अन्य प्राणियों की अपेक्षा 'मन' के अधिक जाग्रत होने से ही मनुष्य को मनुष्य या मानव कहा गया है। यही मनोमय कोश है। जगत के मनोमय कोश में मानव ही में 'मन' सर्वाधिक प्रकट है अन्यों में मन सुप्त है। मन भी कई तरह के होते हैं। यह विस्तार की बातें हैं।

आत्मा ने जड़ से प्राण और प्राण से मन में गति की है। सृष्‍टि के विकास में मन एक महत्वपूर्ण घटना थी। मन के गुण भाव और विचारों के प्रत्यक्षों से है। मन पाँच इंद्रियों के क्रिया-कलापों से उपजी प्रतिक्रिया मात्र नहीं है- इस तरह के मन को सिर्फ ऐंद्रिक मन ही कहा जाता है जो प्राणों के अधिन है।

औसत मन जो संस्कारबद्ध होता है अर्थात जो उन्हीं विचारों को सुनने के लिए तैयार रहता है जिसे ग्रहण करने की उसे शिक्षा मिल चुकी है। फिर भी वह अपने कार्यो में जितना अपने हित, आवेश और पक्षपातों द्वारा संचालित होता है उतना विचारों द्वारा नहीं- यही ऐंद्रिक मन है। 99 प्रतिशत लोग ऐंद्रिक मन में ही जीते हैं। जो भी मन किसी भी प्रकार के ऐंद्रिक ज्ञान से उपजे विचारों के प्रति आग्रही हैं वह ऐंद्रिक मन है। ऐंद्रिक मन में स्‍थित आत्मा भी जड़बुद्धि ही मानी गई है। विचार कितना ही महान हो वह ऐंद्रिक मन की ही उपज है।

उसी आत्मा का मन उच्चतर रूपों में रूपांतरित हो जाता है जिसने इंद्रियों तथा इनसे उपजने वाले भावों से संचालित होना छोड़ दिया है। समूह की मानसिकता में जिना 'मन' की प्राथमिक अवस्थाओं का लक्षण है और जो इससे ऊपर उठता है वह उच्चतर मन के अवतरण के लिए यथा-योग्य भूमि तैयार करता है।

इसीलिए मन के क्रिया-कलापों के प्रति जाग्रत रहकर जो विचारों की सुस्पष्टता और शुद्ध अवस्था में स्थित हो पूर्वाग्रहों से मुक्त होता है वही विज्ञानमय कोश में स्थित हो सकता है।

मन को उच्चतर रूपों में रूपांतरित कहने के लिए प्रत्याहार और धारणा को साधने का प्रावधान है। इसके सधने पर ही आत्मा विज्ञानमय कोश के स्तर में स्थित होती है। मनुष्यों मन की मनमानी के प्रति जाग्रत रहो वेदों में यही श्रेष्ठ उपाय बताया गया है।
विज्ञानमय कोश : सत्यज्ञानमय या विज्ञानमय कोश। सत्यज्ञामय कोश अर्थात जिसे सांसारिक सत्य का ज्ञान होने लगे और जो माया-भ्रम का जाल काटकर साक्षित्व में स्थित होने लगे या जो जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति के स्तर से मुक्ति पाकर निर्विचार की दशा में होने लगे उसे ही सत्यज्ञान पर चलने वाला कहते हैं। दूसरा इस कोश को विज्ञानमय कोश भी कहते हैं। विज्ञान का अर्थ साइंस से न ले। विज्ञान का अर्थ विशेष ज्ञान या विशेष बोध। सत्यज्ञानमय कोश बोधपूर्वक जीने से मिलता है।

मनोमय कोश से मुक्त होकर विज्ञानमय अर्थात सत्यज्ञानमय कोश में स्थित आत्मा को ही हम सिद्ध या संबुद्ध कहते हैं। इस कोश में स्थित आत्माएँ मन से मुक्त हो चुकी होती है। इस कोश के भी कुछ स्तर माने गए है जिस तरह की मनोमय के है।

जब मनुष्य को अपने अज्ञान में पड़े रहने का ज्ञान होता है तब शुरू होता है मन पर नियंत्रण। मन को नियंत्रित कर उसे बुद्धि-संकल्प में स्थित करने वाला ही विवेकी कहलाता है। विवेकी में तर्क और विचार की सुस्पष्टता होती है।

विवेकी को ही विज्ञानमय कोश का प्रथम स्तर माना जाता है किंतु जो बुद्धि का भी अतिक्रमण कर जाता है उसे अंतर्दृष्टि संपन्न मनस कहते हैं। अर्थात जिसका साक्षित्व गहराने लगा। इसे ही ज्ञानीजन संबोधि का लक्षण कहते हैं, जो विचार से परे निर्विचार में स्‍थित है।

ऐसे अंतरदृष्टि संपन्न 'आत्मा' विज्ञानमय कोश के प्रथम स्तर में स्थित होकर सुक्ष्मातित दृष्टिवाला होता है। जब अंतरदृष्टि की पूर्णता आ जाती है तो मोक्ष के द्वार खुलने लगते हैं। इस सत्यज्ञानमय या विज्ञानमय कोश को पुष्ट-शुद्ध करने के लिए ध्यान का प्रावधान है। ध्‍यान तो प्राण और मन को साधने का उपाय भी है।
आनंदमय कोश : ईश्वर और जगत के मध्य की कड़ी है आनंदमय कोश। एक तरफ जड़, प्राण, मन, और बुद्धि (विज्ञानमय कोश) है तो दूसरी ओर ईश्वर है और इन दोनों के बीच खड़ा है- आनंदमय कोश में स्थित आत्मा। महर्षि अरविंद के अनुसार इस कोश में स्थित आत्मा अतिमानव कहलाती है। अतिमानव को सुपरमैन भी कह सकते हैं।

योगयुक्त समाधि पुरुष को ही हम भगवान कहते हैं। यह भगवान ही अतिमानव है। उसे ही हम ब्रह्मा, विष्णु और शिव कहते हैं। यही अरिहंतों और बुद्ध पुरुषों की अवस्था है। ऐसा अतिमानव ही सृष्टा और दृष्टा दोनों है। इस आनंदमय कोश से ही ब्रह्मांड चलायमान है। अन्य सभी कोश सक्रिय है। मानव और ईश्वर के मध्य खड़ा हैं- अतिमानव।

मनुष्यों में शक्ति है भगवान बनने की। दुर्लभ है वह मनुष्य जो भगवतपद प्राप्त कर लेता हैं। इसे ही विष्णु पद भी कहा गया है। भगवान सर्वशक्तिमान, अंतर्यामी और सबका रक्षक है। उसमें ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय का कोई अंतर नहीं वह स्वयं के चरम आनंद के सर्वोच्च शिखर पर स्थित होता है। ऐसा ब्रह्म स्वरूप पुरुष जब देह छोड़ देता है तब ब्रह्मलीन होकर पंचकोश से मुक्त हो जाता है। अर्थात वह स्वयं ब्रह्ममय हो जाता है। ऐसे पुरुष का लक्षण है समाधि। समाधि या मोक्ष के भी भेद है।

अंतत: जड़ या अन्नरसमय कोश दृष्टिगोचर होता है अर्थात दिखाई देता है। फिर प्राण और मन का हम अनुभव ही कर सकते हैं किंतु जाग्रत मनुष्य को ही विज्ञानमय कोश समझ में आता है। जो विज्ञानमय कोश को समझ लेता है वहीं उसके स्तर को भी समझता है। अभ्यास और जाग्रति द्वारा ही उच्च स्तर में गति होती है। अकर्मण्यता से नीचे के स्तर में चेतना गिरती जाती है। इस प्रकृति में ही उक्त पंचकोशों में आत्मा विचरण करती है किंतु जो आत्मा इन पाँचों कोश से मुक्त हो जाती है ऐसी मुक्तात्मा को ही ब्रह्मलीन कहा जाता है। यही मोक्ष की अवस्था है।

इस तरह वेदों में जीवात्मा के पाँच शरीर बताएँ गए है- जड़, प्राण, मन, विज्ञान और आनंद। इस पाँच शरीर या कोश के अलग-अलग ग्रंथों में अलग-अलग नाम है जिसे वेद ब्रह्म कहते हैं उस ईश्वर की अनुभूति सिर्फ वही आत्मा कर सकती है जो आनंदमय शरीर में स्थित है। देवता, दानव, पितर और मानव इस हेतु सक्षम नहीं। उस सच्चिदानंद परब्रह्म परमेश्वर को तो भगवान ही जान सकते हैं। भगवान को ईश्वर स्वरूप माना जाता है ईश्वर नहीं। ईश्वर तो अनंत और व्यापक है।
अनिरुद्ध जोशी 'शतायु