Thursday, July 26, 2012

ध्यान के अनुभव


ध्यान के अनुभव निराले हैं। जब मन मरता है तो वह खुद को बचाने के लिए पूरे प्रयास करता है। जब विचार बंद होने लगते हैं तो मस्तिष्क ढेर सारे विचारों को प्रस्तुत करने लगता है। जो लोग ध्यान के साथ सतत ईमानदारी से रहते हैं वह मन और मस्तिष्क के बहकावे में नहीं आते हैं, लेकिन जो बहकावे में आ जाते हैं वह कभी ध्यानी नहीं बन सकते।

प्रत्येक ध्यानी को ध्यान के अलग-अलग अनुभव होते हैं। यह उसकी शारीरिक रचना और मानसिक बनावट पर निर्भर करता है कि उसे शुरुआत में क‍िस तरह के अनुभव होंगे। लेकिन ध्यान के एक निश्चित स्तर पर जाने के बाद सभी के अनुभव लगभग समान होने लगते हैं।

शुरुआती अनुभव : शुरुआत में ध्यान करने वालों को ध्यान के दौरान कुछ एक जैसे एवं कुछ अलग प्रकार के अनुभव होते हैं। पहले भौहों के बीच आज्ञा चक्र में ध्यान लगने पर अंधेरा दिखाई देने लगता है। अंधेरे में कहीं नीला और फिर कहीं पीला रंग दिखाई देने लगता है।

यह गोलाकार में दिखाई देने वाले रंग हमारे द्वारा देखे गए दृष्य जगत का रिफ्‍लेक्शन भी हो सकते हैं और हमारे शरीर और मन की हलचल से निर्मित ऊर्जा भी। गोले के भीतर गोले चलते रहते हैं जो कुछ देर दिखाई देने के बाद अदृश्य हो जाते हैं और उसकी जगह वैसा ही दूसरा बड़ा गोला दिखाई देने लगता है। यह क्रम चलता रहता है।

कुछ ज्ञानीजन मानते हैं कि नीला रंग आज्ञा चक्र का एवं जीवात्मा का रंग है। नीले रंग के रूप में जीवात्मा ही दिखाई पड़ती है। पीला रंग जीवात्मा का प्रकाश है। इस प्रकार के गोले दिखना आज्ञा चक्र के जाग्रत होने का लक्षण भी माना जाता है। 

इसका लाभ : कुछ दिनों बाद इसका पहला लाभ यह मिलता है कि व्यक्ति के मन और मस्तिष्क से तनाव और चिंता हट जाती है और वह शांति का अनुभव करता है। इसके साथ ही मन में पूर्ण आत्मविश्वास जाग्रत होता है जिससे वह असाधारण कार्य भी शीघ्रता से संपन्न कर लेता है। ऐसा व्यक्ति भूत और भविष्य की कल्पनाओं में नहीं जिता।

दूसरा लाभ यह कि लगातार भृकुटी पर ध्यान लगाते रहने से कुछ माह बाद व्यक्ति को भूत, भविष्य-वर्तमान तीनों प्रत्यक्ष दीखने लगते हैं। ऐसे व्यक्ति को भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के पूर्वाभास भी होने लगते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि उसकी छटी इंद्री जाग्रत होने लगी है और अब उसे ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है। यदि आगे प्रगति करना है तो ऐसे व्यक्ति को लोगो से अपने संपर्क समाप्त करने की हिदायत दी जाती है, लेकिन जो व्यक्ति इसका दुरुपयोग करता है उसे योगभ्रष्ट कहा जाता है।

-अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

ध्यान


ध्यान का समय, स्थान और वस्तु निश्चित हो तो अधिक अच्छा। ध्यान करते समय अन्य विचारों को मन में न आने दें। बार-बार विचार आएंगे, परंतु प्रयत्न के द्वारा इन विचारों को दूर कर ध्यान किया जा सकता है। 

नियमित ध्यान करने से बुद्धि की कुशाग्रता में वृद्धि, याद शक्ति (स्मरण शक्ति) का बढ़ना, आत्मविश्वास का बढ़ना, विपरीत परिस्थितियों में मन का संतुलन न खोना आदि परिणाम आप अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में आसानी से देख सकते हैं। 

ध्यान करने के अलावा सुबह उठने पर, भोजन के पूर्व एवं सोने के पहले प्रार्थना करना चाहिए। उसमें धर्मानुसार अपने ईष्ट भगवान की प्रार्थना मनःपूर्वक करने से भी मन में विश्वास, समर्पण की भावना जागृत होगी, जिससे धीरे-धीरे परिणामों की चिंता दूर होती जाएगी। 

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परीक्षा के दिनों में बालक का मानसिक तनाव बढ़ जाता है। विद्यालय की अपेक्षाएं, माता-पिता एवं शिक्षकों की अपेक्षाएं एवं स्पर्धात्मक शिक्षा की इस दौड़ में वह अपने आपको झोंक देता है, ऐसे समय उसे मानसिक तनाव से मुक्त रखने के लिए निम्नलिखित बातों का पालन करना चाहिए। 

अच्छे संगीत को सुनना, पसंदीदा भजन सुनना, श्लोक, आरती आदि को पढ़ाई के बीच-बीच सुनने से तनाव दूर होता है। 

इसके साथ ही महापुरुषों, भारतीय संस्कृति या मानवीय मूल्यों पर आधारित छोटी-छोटी कहानियां सुनाना या पढ़ना चाहिए। 

घर के बड़ों-बुजुर्गों के साथ कुछ देर के लिए गृहकार्य में हाथ बंटाना अच्छी बात होती है। 

प्रार्थना एवं ध्यान एकाग्रता को बढ़ाने के कारगर उपाय है। 

* दिन भर में कम से कम एक से दो घंटे तक योगा, शारीरिक व्यायाम एवं पसंदीदा खेल अवश्य करना चाहिए। 
आजकल की शिक्षा पद्धति न तो बालक को शारीरिक दृष्टि से सक्षम बनाती है, न ही मानसिक संतुलन बनाए रखती है, न ही उसे समाज का एक सुसभ्य, सच्चरित्र, निष्ठावान, उत्तरदायी व्यक्ति बनाती है। आध्यात्मिक दृष्टि से तो वह पूर्णतया अनभिज्ञ है। 

आज के इस विज्ञान युग में किडनी, हृदय प्रत्यर्पण जैसे जटिल ऑपरेशन आसान हो गए हैं। चंद्र, मंगल आदि ग्रहों पर बस्ती बसाने का विचार भी इंसान कर रहा है, परंतु इतना सब होते हुए भी मनुष्य कहीं गुम हो गया है। मानवता अपना अस्तित्व खोज रही है और बालक अपना बाल्यकाल खो चुका है। 

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भौतिक सुखों की प्राप्ति की इस आपाधापी में बचपन जैसे नदारद हो गया है। वह जल्दी प्रौढ़ हो रहा है एवं कई तरह के मानसिक तनावों से ग्रस्त होता जा रहा है। 

मनोचिकित्सक से जानें तो बच्चों में अवसाद, अपराधी प्रवृत्तियां और व्यवहार में आने वाले परिवर्तन बढ़ते जा रहे हैं। 

इस सबसे बचने के लिए आवश्यक है उसे बचपन को जीने दें, परंतु आगे जाकर इन परिस्थितियों का सामना करने के लिए उसे शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक रूप से परिपूर्ण बनाना होगा और यही दैनंदिन जीवन में साधना का महत्व परिलक्षित होता है। 

साधना की शुरुआत हम आज अभी से कर सकते हैं। उसके लिए किसी मुहूर्त या समय की आवश्यकता नहीं है। कम उम्र में साधना की आदत होने पर बालक बड़ा होकर आत्मविश्वास, आत्मतृप्ति, आत्मसंयम एवं आत्मत्याग जैसे गुणों से परिपूर्ण होगा। साधना के कई सोपान हैं। 
अपने बच्चे के शारीरिक विकास में आवश्यक खान-पान, खेलकूद का ध्यान हर माता-पिता को रखना चाहिए। तथा मानसिक स्वास्थ्य का एवं आध्यात्मिक साधना की ओर भी ध्यान देना चाहिए।

Thursday, July 19, 2012

धर्म तत्त्व का दर्शन एवं मर्म

संसार में सभी प्रकार के मनुष्य भरे पड़े हैं । उनका वर्गीकरण मोटे रूप में इस प्रकार किया जा सकता है - सज्जन, दुःखी, समुन्नत और दुर्जन । इन सबसे व्यवहार भी तद्‌नुरूप ही करना होता है । सभी से एक जैसा व्यवहार नहीं हो सकता ।

योगदर्शन में एक सूत्र आता है । मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा । इसमें व्यक्ति के अनुरूप व्यवहार करने की आवश्यकता एवं उपयोगिता समझाई गई है ।
सज्जनों के साथ मित्रता करनी चाहिए । ताकि उनके सद्‌गुणों का प्रभाव अपने ऊपर भी पड़े और समयानुरूप सद्‌व्यवहार किये जाने की भी अपेक्षा रहे ।
दुःखी लोगों के, पिछड़ों के प्रति करुणा भाव रखा जाय और उनकी सेवा-सहायता करने, संकटों से उबारने की चेष्टा चल पड़े । कम से कम सहानुभूति प्रकट करने, धैर्य बँधाने-उबरने का मार्ग बताने का प्रयत्न तो किया ही जाना चाहिए । जो सफल-समुन्नत हैं उनको देखकर प्रसन्न हुआ जाय । उन्नतिशीलों को इतना उपहार तो मिलना ही चाहिए कि उनके पुरुषार्थ एवं कौशल की प्रशंसा हो, प्रोत्साहन मिले ।
इससे दूसरों को भी उत्कर्ष की प्रेरणा मिलती है । दुष्ट-दुर्जनों से सदा लड़ना तो सम्भव नहीं हो सकता । रास्ता चलते किससे झगड़ा किया जाय और किस प्रकार सुधारा तथा ठिकाने लाया जाय, इसलिए उनकी उपेक्षा की जाय । कम से कम अपने साथ किये दुर्व्यवहार की तो उपेक्षा की ही जा सकती है, ताकि जितना समय बदला लेने, नीचा दिखाने में लगे, उसे बचाकर किसी उपयोगी कार्य में लगाया जा सके । इतने पर भी इतना तो ध्यान रखना चाहिए कि उन्हें असहयोग, विरोध और संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होने का भय तो दिखाया जाय, अन्यथा उनको निर्विरोध की स्थिति में अधिक दुस्साहस दिखाने का अवसर मिलता है । उपेक्षा इसी सीमा तक ही होनी चाहिए, जिससे दुष्टों को हौसला बढ़ने न पाये।
व्यक्ति के स्तर अनुरूप व्यवहार करना ही कर्म-कौशल है, जिसे गीता में भगवान्‌ ने योग का ही एक प्रकार कहा है । व्यवहार कुशलता के आधार पर व्यक्तियों से भिन्न व्यवहार करने की बात इसलिए कहनी पड़ी कि तत्त्वदर्शन में कई स्थानों पर ऐसा उल्लेख आता है कि सबमें एक ही आत्मा है, इसलिए समदर्शी होना चाहिए और सबसे सद्‌-व्यवहार करना चाहिए । ''आत्मवत्‌ सर्वभूतेषु'' की मान्यता विचार-बुद्धि तक ही सीमित रहने योग्य है । उसे व्यवहार में समान रूप से प्रयुक्त नहीं किया जा सकता । व्यवहार में जाने पर तो बड़ी अटपटी स्थिति हो जायेगी । सम्मानित गुरुजन और दुष्ट-दुरात्मा एक ही मंच पर बिठाये जायेंगे और उनकी समान रूप से पूजा-आरती की जायगी अथवा दोनों की उपेक्षा-भर्त्सना की जायेगी तो यह व्यवहार सर्वथा अटपटा हो जायेगा । उसका दुष्परिणाम ही होगा । दर्शन दृष्टिकोण तक सीमित है, व्यवहार लोकाचार से सम्बन्धित, इसलिए दोनों के बीच का अन्तर औचित्य का सर्मथन करते हुए अनौचित्य का विरोध भी करना चाहिए । भैंसे को डन्डे के बल पर चलाया जाता है किन्तु घोड़ा लगाम का इशारा करने पर ही दौड़ने लगता है, यह प्रकृति की भिन्नता है । उसी के अनुरूप व्यवहार का औचित्य भी है । ऐसा भी हो सकता है कि आवश्यकतानुसार व्यवहार में साम, दाम, दण्ड, भेद की चतुरता का समावेश किया जाय । जहाँ एक से काम न चलता हो, वहाँ दूसरे-तीसरे की नीति अपनाई जाय । भावना हमारी सुधार की है । व्यक्ति से नहीं अनीति से घृणा करो और डाक्टर के आपरेशन जैसी कठोरता को भी नीति के अर्न्तगत ही समझें, तो वह समन्वित व्यवहार सभी के लिए श्रेयस्कर हो सकता है ।
-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

Monday, July 9, 2012

गुरु पूर्णिमा


हम इस जगत में अपनी माता द्वारा आते हैं और वह हमारी प्रथम जन्म दात्री बनती है। लेकिन हमारा दूसरा जन्म गुरु द्वारा होता है -गुरु जो हमें ज्ञान और कौशल प्रदान करते हैं। आचार्य ज्ञान देते हैं, गुरु जागृत करता है। जब आध्यात्मिक ज्ञान इतना संपूर्ण हो कर प्रकट हो कि तुम रात और दिन, आठों पहर सचेतन महसूस करने लगो, तो उसे सदगुरु कहते हैं। गुरु एक तत्व है, तुम्हारे भीतर पड़ा एक गुण। वह कोई बाहर खड़ा दूसरा व्यक्ति या महापुरुष नहीं है। वह इस शरीर और रूप तक सीमित नहीं है। वह प्रतिकार करने और द्रोह करने पर भी तुम्हारे जीवन में चला आता है।

जीवन में यह गुरु सिद्धांत बहुत महत्वपूर्ण है। गुरु तत्व प्रत्येक व्यक्ति में है। हमें हरेक के भीतर इस ज्ञान का आह्वान करना है, इसे जागृत करना है। हमारी चेतना में ज्ञान तभी जीवित होता है, जब गुरु तत्व जीवित होता है। जब हम में अपनी कोई इच्छाएं नहीं रह जातीं, तब हमारे जीवन में गुरु तत्व का उदय होता है। जागो और देखो, जीवन हर क्षण कैसे बदल रहा है।

उस क्षण में तुम्हें जो भी मिला है, उसके लिए कृतज्ञ महसूस करो। अपने मन का सब कूड़ा-करकट गुरु को दे दो और मुक्त हो जाओ। गुरु एक खिड़की की तरह है, जो तुम्हारे जीवन में अधिक आनंद, अधिक सतर्कता, अधिक जागरूकता लाता है।

गुरु वह नहीं हैं जो तुम्हारे ऊपर प्रभुत्व जताते हैं। वह नहीं हैं जो तुम पर हुक्म चलाते हैं। बल्कि गुरु तुम्हें अपने आप से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। वे तुम्हें वर्तमान क्षण में रहने की याद दिलाते हैं, तुम्हारा अपराध भाव, आवेश, दुख और मनोव्यथा हर लेते हैं। गुरु का सही अर्थ यही है। गुरु की खुशामद करने की प्रथा सदियों से चली आ रही है। कोई क्यंू किसी और की पूजा करता है? कालेजों में रॉक स्टारों, फिल्म स्टारों और खिलाडि़यों को भला क्यों इतने श्रद्धा भाव से देखा जाता है। यह खुशामद मानव स्वभाव का अंग है। तुम्हारी भीतरी गहराई में अच्छे गुणों को सराहना और उनका आदर बसा हुआ है।

पहलेदेशों में लोग अपने गुरु पर गर्व करते थे, बहुत सम्मान हुआ करता था। लेकिन आज के विद्यार्थियों में वो बात नहीं है। भारत में अक्टूबर महीने में एक त्योहार मनाया जाता है, जिस में लोग मोटर, कार और स्कूटर से ले कर सब वस्तुओं की पूजा करते हैं। सभी चीजें पूजी जाती हैं। क्योंकि हरेक परमाणु में ईश्वर का वास है।
जब भी तुम किसी व्यक्ति या किसी चीज की प्रशंसा करते हो, तो वह प्रशंसा ईश्वर को जाती है और तुम्हारी चेतना विकसित होती है। यदि तुम गुरु की प्रशंसा करते हो, तो वह प्रशंसा ईश्वर को पहुंचती है। इसीलिए हम गुरु पूर्णिमा का उत्सव मनाते हैं। गुरु पूर्णिमा वह दिन है, जब शिष्य के भीतर एक भक्त अपनी संपूर्ण कृतज्ञता में उदित होता है।

यह उस महान ज्ञान के लिए कृतज्ञ होने का दिन है, जो तुम्हें गुरु से प्राप्त हुआ है। यह पुनरावलोकन करने का समय है कि तुमने अपने जीवन में कितना ज्ञान अपनी गहराई तक पहुंचाया है और ज्ञान में तुम कितने विकसित हुए हो। इससे तुम्हारी उन्नति में और कितना अवकाश है, उसकी समझ आएगी और इससे तुम में नम्रता आएगी।
इसलिए इस ज्ञान ने तुम्हें जिस प्रकार से रूपांतरित किया है, उसके लिए कृतज्ञ बनो। जरा सोचो, इसके बिना तुम कैसे होते। कृतज्ञता और विनम्रता से तुम्हारे भीतर विशुद्ध प्रार्थना खिलती है! गुरु पूर्णिमा के दिन भूतकाल के सभी गुरुओं का स्मरण करो। जब तुम्हारे जीवन में संपूर्णता होती है, तभी तुम में कृतज्ञता की भावना उठती है।
फिर तुम गुरु से आरंभ करते हो और अंत में जीवन की सभी वस्तुओं का आदर सत्कार करने लगते हो। गुरु पूर्णिमा के दिन भक्त संपूर्ण कृतज्ञता में जागृत होता है। भक्त अपने आप बहने वाला एक सागर बन जाता है। गुरु पूर्णिमा भक्ति और कृतज्ञता में उदित होने का उत्सव मनाने का समय है।
श्री श्री रवि शंकर

संसार में संसार के न होकर जीएं

हम संसार में संसार के न होकर जीएं यही आध्यात्मिकजीवन है। बहुत कठिन है कीचड़ में रह कर अनछुए कमलजैसा जीवन जीना। बहुत जटिल है कान के होने पर भीशब्दों को न सुनना आंख के होने पर भी दृश्य को न देखना ,नाक के होने पर भी गंध को न सूंघना जीभ के होने पर भीस्वाद को न चखना त्वचा के होने पर भी स्पर्श न करना।सचमुच यह असंभव सी जीवनशैली है। पर धर्मग्रंथों में यहीबताया गया है। कैसे संभव है ऐसी जीवनशैली 


आध्यात्मिक दृष्टि से इस समस्या का समाधान यही है कि सब कुछ करें किंतु बिना प्रियता अप्रियता के भाव लिए।क्योंकि प्रतिक्रिया हमें अपने स्वभाव से दूर ले जाती है। 

सांसारिक जीवन में हम नाना प्रकार के प्रलोभनों से घिरे रहते हैं। हमारे चारों ओर मोह माया का जाल बिछारहता है। भौतिक पदार्थों का आकर्षण इतना प्रबल होता है कि हम निरंतर उनका संचय करते जाते हैं उनके जालमें बंधते जाते हैं। पदार्थ किसी को नहीं बांधता हम ही बेजान पदार्थों के सम्मोहन में बंध जाते हैं। 

यह आसक्ति ही है कि दौलत बैंक में होती है और उसका नशा आदमी के भीतर। हाल ही में मृत्यु से जूझते एक साधुको देखा जिसके हाथ अंतिम सांसें गिनते हुए कुछ टटोल रहे थे। पता चला कि वह अपनी पोटली खोज रहा हैजिसमें उसकी जमा पूंजी थी। परिग्रह की माया ही कुछ ऐसी है जो किसी को नहीं छोड़ती। 

मनुष्य का मन बड़ा चंचल है। वह नित्य नई मांगें करता है। इनका कभी अंत नहीं होता। एक मांग पूरी हुई नहीं किदूसरी सामने आ जाती है। घर में चीजों की ढेर लग जाती है। उनमें न जाने कितनी चीजें ऐसी होती हैं जो सालोंहमारे काम नहीं आतीं। रोज फैशन बदलता है और आज हम जिस चीज को लाते हैं वह कुछ ही समय में पुरानीपड़ जाती है। उसे हम एक ओर डाल देते हैं और नए फैशन की चीज ले आते हैं। कुछ समय बाद उसके साथ भीवैसा ही होता है। हम यह कभी नहीं सोचते कि जिसकी हमें आवश्यकता नहीं है उसे जब हम संग्रहीत करते हैं तोउस व्यक्ति का हक छीनते हैं जिसको उसकी आवश्यकता है। 

प्रकृति का नियम ऐसा है कि वह जिसे जन्म देती है उसे दो हाथ भी देती है। दोनों हाथों से कर्म करो रोजकमाओ रोज खाओ। संग्रह का अर्थ होता है दूसरे को उससे वंचित करना। आज बीस पच्चीस प्रतिशत लोगों नेअधिकांश साधन अपनी मुट्ठी में बंद कर रखे हैं। इसी से हम विषमता के दुष्चक्र में फंसे हैं। जमाव अभाव का जनकहोता है और इसी से हिंसा आतंक विद्रोह और शोषण जैसी स्थितियां पैदा होती हैं। आज की अशांति औरअराजकता का मूल कारण परिग्रह ही है। 

दुनिया में ज्यादातर लोग आज भौतिक मूल्यों के उपासक बन गए हैं और जीवन के धर्म को भूल गए हैं। उनकीइस उपासना ने दुनिया के बाहरी जगत को बड़ा लुभावना और आकर्षक बना दिया है। इस आपाधापी में हम सुखका आंतरिक सौंदर्य भूल गए हैं। 

संत एकनाथ ने कहा है कि धन जोड़कर भक्ति का दिखावा करने से कोई लाभ नहीं क्योंकि ऐसा करने से मन मेंवासना और भी बढ़ जाएगी। जिनका चित्त वासना में फंसा हुआ है उन्हें अंतरात्मा के दर्शन कैसे हो सकते हैं ?महात्मा गांधी ने प्रेमा बहन को एक पत्र लिखा जो लोग कृष्ण कृष्ण कहते हैं वे सब उनके पुजारी नहीं होते। जोउनका काम करते हैं वे ही पुजारी हैं। रोटी रोटी कहने से पेट नहीं भरता रोटी खाने से भरता है। इसी तरहवास्तविक सुख पाने के लिए भी भक्ति यानी साधना की ओर प्रवृत्त होना पड़ता है।