Tuesday, May 1, 2012

अपना दीपक खुद बनो


बुद्ध ने मोक्षदाता होने का दावा कभी नहीं किया। भगवान बुद्ध कहते थे : बुद्ध तो केवल मार्ग दर्शक हैं, वे अपनी शिक्षाओं द्वारा धर्म का रास्ता बनाते हैं, चलना तो हर किसी को स्वयं पड़ता है। इसीलिए वे हर व्यक्ति को आत्म निर्भर बनने की शिक्षा देते हैं और कहते हैं, अप्प दीपो भव -यानी अपना दीपक खुद बनो।
एक बार भगवान बुद्ध श्रावस्ती में विहार कर रहे थे। जो लोग वहां प्रतिदिन आते थे, उनमें मोग्गालन नामक एक युवक भी था। एक दिन उसने बुद्ध से कहा, आप के संघ में कुछ लोग तो अर्हत पद को प्राप्त हो चुके हैं और कुछ लोग होने वाले हैं। लेकिन बहुत सारे अनुयायी ऐसे भी हैं, जिनको आपके उपदेश सुन कर शांति तो मिलती है, लेकिन वे उन्हें अपने जीवन में लागू नहीं कर पाते। आप उन सबको निर्वाण सुख देकर संसार के बंधनों से मुक्त क्यों नहीं करते?
बुद्ध ने उससे पूछा कि वो कहां का रहने वाला है? मोग्गालन ने बताया कि वो राजगृह से है। बुद्ध ने पूछा कि क्या वो राजगृह आने- जाने का रास्ता जानता है? मोग्गालन के हां कहने पर बुद्ध बोले कि कोई आदमी राजगृह जाने का रास्ता पूछता है और मोग्गालन के बताने के बावजूद वो उस रास्ते में न चलकर उल्टी दिशा में जाए तो क्या राजगृह पहुंच जाएगा?
मोग्गालन ने इनकार में सिर हिला दिया, कभी नहीं। तब बुद्ध मुस्कुरा कर बोले, तथागत का काम भी धम्म का रास्ता बताना होता है। यदि कोई व्यक्ति उस राह पर चले नहीं और बुद्धं शरणं गच्छामि करता रहे, तो वह कैसे भव बंधनों से मुक्त होगा?
कालामों कोउपदेश देते हुए उन्होंने कहा : किसी बात को इसलिए मत मानो क्योंकि ऐसा सदियों से होता आया है। किसी बातको इसलिए भी मत मानो कि बड़े लोग या विद्वान लोग ऐसा कहते हैं। किसी बात को इसलिए भी मत मानो किग्रंथों में ऐसा लिखा हुआ है। किसी भी बात को अपनी अनुभूति से परखने के बाद ही स्वीकार करो।

बुद्ध ने कहा, शील, समाधि और प्रज्ञा का रास्ता सभी के लिए खुला है। कोई भी व्यक्ति इस रास्ते पर चल करवहां पहुंच सकता है, जहां बुद्ध हुआ जाता है। लेकिन इसके लिए स्वयं चलना पड़ेगा। जिसने अपने चित्त से राग,द्वेष और मोह को समूल नष्ट कर दिया, वह भगवान हो गया। तथागत का अर्थ है 'तथता' -अर्थात सत्य के सहारेजिसने 'परम सत्य' का साक्षात्कार किया हो। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति जो सांसारिक दुखों से छुटकारा पाकर निर्वाणसुख प्राप्त करना चाहता है, उसे स्वयं ही शील, समाधि और प्रज्ञा के मार्ग पर चलना पड़ेगा।

उन्होंने कहा, देवता, अर्हत पद और भगवान -ये सब चित्त की अवस्थाएं हैं। चित्त ज्यों-ज्यों निर्मल होता जाता है,प्रेम, मुदिता, मैत्री, बंधुत्व और क्षमा की भावना बढ़ती जाती है। और मनुष्य उत्तरोत्तर उन्नति करता जाता है।

बुद्ध के अनुसार प्रकृति के नियमों के अनुसार आचरण करना ही धर्म है। ये नियम सार्वजनीन, सार्वकालिक औरसार्वदेशिक होते हैं। प्रकृति कभी नस्ल, वर्ण, रंग,रूप, लिंग, उम्र, हैसियत, स्थान आदि में भेदभाव नहीं करती।प्रकृति के नियम जैसे शरीर के बाहर काम करते हैं, ठीक उसी तरह शरीर के भीतर भी काम करते हैं। क्रोध आनेपर, लालच, ईर्ष्या और वासना जागने पर हर प्राणी को व्याकुल होना ही पड़ता है, चाहे वह किसी भी लिंग,जाति, वर्ग, धर्म या देश का हो, या किसी भी समय में हो। जो भी व्यक्ति प्रकृति के नियमों के अनुसार जीवनयापन करता है, वह सुखी व शांत रहता है। और जो निसर्ग के नियमों का उल्लंघन करता है वह दुखी व व्याकुलहोता है। इसका कोई अपवाद नहीं है ।

वैशाख पूर्णिमा के दिन लुंबिनी में बुद्ध का जन्म हुआ था। इसी दिन बोध गया में उनको बुद्धत्व प्राप्त हुआ औरइसी दिन कुशीनगर में उनका महापरिनिर्वाण हुआ। इसीलिए इस पूर्णिमा को बुद्ध पूर्णिमा कहते हैं और इस दिनको पवित्र मानते हैं। जन्म और मृत्यु तो हर इंसान के जीवन की प्राकृतिक घटनाएं हैं, लेकिन बुद्धत्व की प्राप्ति एकअसाधारण प्राप्ति है, जो कठिन तप और साधना से ही मिलती है।

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