Wednesday, May 30, 2012

कुंडलिनी शक्ति में स्थित चक्र


मनुष्य शरीर स्थित कुंडलिनी शक्ति में जो चक्र स्थित होते हैं उनकी संख्या कहीं छ: तो कहीं सात बताई गई है। इन चक्रों के विषय में अत्यंत महत्वपूर्ण जानकारी। समय-समय पर चक्रों वाले स्थान पर ध्यान दिया जाए तो मानसिक स्वास्थ्य और सुदृढ़ता प्राप्त की जा सकती है।

1.मूलाधार चक्र- गुदा और लिंग के बीच चार पंखुरियों वाला 'आधार चक्र' है। आधार चक्र का ही एक दूसरा नाम मूलाधार चक्र भी है। वहां वीरता और आनंद का भाव का निवास करता है। उक्त स्थान पर ध्यान लगाने से यह प्राप्त किया जा सकता है। 

2.स्वाधिष्ठान चक्र- स्वाधिष्ठान चक्र लिंग मूल में है जिसकी छ: पंखुरियां हैं। इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है। 

3.मणिपूर चक्र- नाभि में दस दल वाला मणिचूर चक्र है। इसके सक्रिय होने से तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह, आदि कषाय-कल्मष दूर हो जाते हैं।

4.अनाहत चक्र- हृदय स्थान में अनाहत चक्र है जो बारह पंखरियों वाला है। इसके सक्रिय होने पर लिप्सा, कपट, हिंसा, कुतर्क, चिंता, मोह, दम्भ, अविवेक और अहंकार समाप्त हो जाते हैं।

5.विशुद्धख्य चक्र- कण्ठ में सरस्वती का स्थान है जहां विशुद्धख्य चक्र है और जो सोलह पंखुरियों वाला है। यहीं से सोलह कलाओं और सोलह विभूतियों का ज्ञान होता है। इसके जाग्रत होने से जहां भूख और प्यास को रोका जा सकता हैं वहीं सोलह कलाओं और विभूतियों की विद्या भी जानी जा सकती है।

6.आज्ञाचक्र- भ्रूमध्य (दोनों आंखों के बीच भ्रकूटी में) में आज्ञा चक्र है जहां उद्गीय, हूँ, फट, विषद, स्वधा स्वहा, सप्त स्वर आदि का निवास है। यहां अपार शक्तियां और सिद्धियां निवास करती हैं। इस आज्ञा चक्र का जागरण होने से यह सभी शक्तियां जाग पड़ती हैं। 

7.सहस्रार चक्र- सहस्रार की स्थिति मस्तिष्क के मध्य भाग में है अर्थात जहां चोटी रखते हैं। शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण विद्युतीय और जैवीय विद्युत का संग्रह है। यही मोक्ष का द्वारा है।

Saturday, May 5, 2012

मौन


यह बड़ा विरोधाभास है, जिसने न बोलना सीख लिया वही बोलने का हकदार है। जिसने चुप होना जाना, वही पात्र है कि अगर बोले तो सौभाग्य। जिसने चुप होना सीख लिया, उसको चुप हमने नहीं रहने दिया।

कहते हैं बुद्ध को जब ज्ञान हुआ तो वह सात दिन चुप रह गए। चुप्पी इतनी मधुर थी। ऐसी रसपूर्ण थी, ऐसी रोआं-रोआं उसमें नहाया, सराबोर था, बोलने की इच्छा ही न जागी। बोलने का भाव ही पैदा न हुआ। कहते हैं, देवलोक थरथराने लगा। 

कहानी बड़ी मधुर है। अगर कहीं देवलोक होगा तो जरूर थर थराया होगा। कहते हैं ब्रह्मा स्वयं घबरा गए। क्योंकि कल्प बीत जाते हैं, हजारों-हजारों वर्ष बीतते हैं, तब कोई व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध होता है। ऐसे शिखर से अगर बुलावा न दे तो जो नीचे अंधेरी घाटियों में भटकते लोग हैं, उन्हें तो शिखर की खबर भी न मिलेगी। वे तो आंख उठाकर देख भी न सकेंगे; उनकी गरदनें तो बड़ी बोझिल हैं। वस्तुतः वे चलते नहीं, सरकते हैं, रेंगते हैं।

आवाज बुद्ध को देनी ही पड़ेगी। बुद्ध को राजी करना ही पड़ेगा। जो भी मौन का मालिक हो गया। उसे बोलने के लिए मजबूर करना ही पड़ेगा। कहते हैं, ब्रह्मा सभी देवताओं के साथ बुद्ध के सामने मौजूद हुए। वे उसके चरणों में झुके। हमने देवत्व से भी ऊपर रखा है बुद्धत्व को। सारे संसार में ऐसा नहीं हुआ। 

हमने बुद्धत्व को देवत्व के ऊपर रखा है। कारण है देवता भी तरसते हैं बुद्ध होने को। देवता सुखी होंगे, स्वर्ग में होंगे। अभी मुक्त नहीं हैं, अभी मोक्ष से बड़े दूर हैं। अभी उनकी लालसा समाप्त नहीं हुई है। अभी तृष्णा नहीं मिटी है। अभी प्यास नहीं बुझी है। उन्होंने और अच्छा संसार पा लिया है और सुंदर स्त्रियां पा ली हैं। कहते हैं स्वर्ग में कंकड़-पत्थर नहीं है, हीरे जवाहरात हैं। कहते हैं स्वर्ग में जो पहाड़ हैं, वे शुद्ध स्फटिक माणिक के हैं। कहते हैं, स्वर्ग में जो फूल लगते हैं वे मुरझाते नहीं। परम सुख है। लेकिन स्वर्ग से भी गिरना होता है। क्योंकि सुख से भी दुख में लौटना होता है। 

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सुख और दुख एक ही सिक्के के पहलू हैं। कोई नरक में पड़ा है। कोई स्वर्ग में पड़ा है। जो नरक में पड़ा है वह नरक से बचना चाहता है। जो स्वर्ग में पड़ा है वह स्वर्ग से बचना चाहता है। दोनों चिंतातुर हैं। दोनों पीडि़त और परेशान हैं। जो स्वर्ग में पड़ा है, वह भी किसी लाभ के कारण वहां पहुंचा है। एक ने अपने लोभ के कारण पाप किया होगा। एक ने लोभ के कारण पुण्य किए हैं। लोभ में फर्क नहीं है।

जब तुम मौन हो जाते हो तो अस्तित्व भी प्रार्थना करते है कि बोलो, करुणा को जगाते हैं। उन्हें रास्ते का कोई भी पता नहीं। उन्हें मार्ग का कोई भी पता नहीं है। अंधेरे में टटोलते हैं। उन पर करुणा करो। पीछे लौटकर देखो।

साधारण आदमी वासना से बोलता है, बुद्ध पुरुष करुणा से बोलते हैं। साधारण आदमी इसलिए बोलता है कि बोलने से शायद कुछ मिल जाए, बुद्ध पुरुष इसलिए बोलते हैं कि शायद बोलने से कुछ बंट जाए। बुद्ध इसलिए बोलते हैं कि तुम भी साझीदार हो जाओ उनके परम अनुभव में। पर पहले शर्त पूरी करना पड़ती है। मौन हो जाने की, शून्य हो जाने की।

जब ध्यान खिलता है, जब ध्यान की वीणा पर संगीत उठता है, जब मौन मुखर होता है, तब शास्त्र निर्मित होते हैं, जिनको हमने शास्त्र कहा है, वह ऐसे लोगों की वाणी है, जो वाणी के पार चले गए थे। और जब भी कभी कोई वाणी के पार चला गया, उसकी वाणी शस्त्र हो जाती है। आप्त हो जाती है। उससे वेदों का पुनः जन्म होने लगता है।

पहले तो मौन को साधो, मौन में उतरो; फिर जल्दी ही वह घड़ी भी आएगी। वह मुकाम भी आएगा। जहां तुम्हारे शून्य से वाणी उठेगी। तब उसमें प्रामाणिकता होगी सत्य होगा। क्योंकि तब तुम दूसरे के भय के कारण न बोलोगे। तुम दूसरों से कुछ मांगने के लिए न बोलोगे। तब तुम देने के लिए बोलते हो, भय कैसा। कोई ले तो ठीक, कोई न ले तो ठीक। ले-ले तो उसका सौभाग्य, न ले तो उसका दुर्भाग्य तुम्हारा क्या है? तुमने बांट दिया। जो तुमने पाया तुम बांटते गए। तुम पर यह लांछन न रहेगा कि तुम कृपण थे। जब पाया तो छिपाकर बैठ गए।

दूसरे के सुख में सुखी रहो


यदि आप जीवन में सुख-शांति चाहते हैं तो दूसरों को सुख देने की कोशिश करें। याद रखें संसार में सुख ज्यादा है दुख कम। लेकिन संसार में सबके दुख का कारण एक ही है। आज का इंसान अपने दुख से बहुत कम दुखी है, परंतु दूसरे के सुख को देखकर ज्यादा दुखी है। 

आज का इंसान अपने बनते हुए घर को देखकर कम खुश है, परंतु दूसरे के जलते हुए घर को देखकर ज्यादा खुश है। एक बार राजा जनक के पास तत्ववेत्ता ऋषि पहुंचे। राजा अपना सिंहासन छोड़कर आए और ऋषि को दंडवत प्रणाम कर आसन पर बैठा कर कहने लगे ऋषिवर, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं? ऋषि बोले- हे राजन्‌! आपके इस नगर के समीप मेरा गुरुकुल आम है। वहां एक हजार ब्रह्मचारी विद्या अर्जन करते हैं। मुझे आम के विद्यार्थियों के दूध पीने के लिए गौ चाहिए। 

राजा जनक महान ज्ञानी एवं विद्वत्‌ अनुरागी तो थे ही, जिज्ञासु स्वभाव के भी थे। ऋषिवर से बोले- मैं आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूं। बताइए कि मेरी हथेली में बाल क्यों नहीं हैं? ऋषि बोले- आप दान ज्यादा देते हैं, इसलिए आपकी हथेली में बाल नहीं हैं। राजा संतुष्ट नहीं हुए। 

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इसी प्रकार आदित्य ब्रह्मचारी ऋषि दयानंद ने संसार के लोगों को एक संदेश दिया कि प्रत्येक को अपनी ही उन्नति में संतुष्ट नहीं होना चाहिए बल्कि सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए। इस प्रकार विचारधारा रखने वाले लोग शांति को प्राप्त करते हैं। 

जो व्यक्ति दूसरे के सुख को देखकर जलता हो तो यह मानना चाहिए कि वह राजयक्ष्मा रोग का शिकार है। अगर दुष्टता मनुष्य में आ जाए, तो वहीं कोढ़ है। 

तुलसी जी ने इसे मानस रोग कहा है। - 'पर सुख देखि जरनि सोई छुई। कुष्ट दुष्टता मान कुटिलई।' जहां राजयक्ष्मा और कोढ़ दोनों एक ही जगह हो तो मानना सर्वनाश ही सर्वनाश है। शांति का द्वार सदा बंद है। जिसका स्वभाव दूसरे के सुख को देखकर जलने का हो तो मानना चाहिएक कि उसके जीवन में मंथरा है।
नरक के तीन द्वार हैं - काम, क्रोध तथा लोभ इसलिए इन तीनों को छोड़ देवें। ये तीन राक्षसियां हैं, शूर्पणखा ये काम की प्रतीक है, ताड़का, क्रोध की प्रतीक है, मंथरा लोभ की प्रतीक है। लोभी आदमी को अपना लाभ हो तो उसे शांति मिलती है, वह चाहता भी है कि पड़ोसी का जरूर घाटा हो। मंथरा, कैकेयी को सलाह देती है कि दो वरदान मांग लो- भरत को राजगद्दी और राम को वनवास। 

इस प्रकार के स्वभाव वाले लोग सदा दुख, क्लेश, तनाव से ग्रसित रहते हैं। यदि जीवन में शांति, प्रसन्नता, आनंद चाहते हो तो दूसरे के सुख में सुखी रहो, दूसरे के दुख में दुखी रहने का स्वभाव बनाओ।

आचार्य चन्द्रशेखर शास्त्री 

आत्मविश्वास विकसित करें


वैसे तो करियर निर्माण की कई राहें हैं, लेकिन मनचाहे क्षेत्र में करियर निर्माण की राह तलाश करना इतना आसान नहीं है। आज के बदलते परिवेश में अच्छा करियर हासिल करने के लिए कई क्षेत्रों में पारंगत होना पड़ता है और अपनी योग्यताओं को लगातार विकसित करना होता है।

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आज मेहनत या पसीना बहाने वालों को ही बेहतर काम नहीं मिलता। करियर की दौड़ में कछुआ चाल कामयाबी की गारंटी हरगिज़ नहीं हो सकती है। आज तेज-तर्रार खरगोश ही सफलता का पर्याय माना जाता है। करियर बनाने के इन दस टिप्स से आप सफलता हासिल कर सकते हैं।

खुद में एक्सिलेंस लाएं- मौजूदा परिस्थिति में किताबी कीड़ा बनकर या डिग्रियों का ढेर लगाकर सफलता की कामना नहीं की जा सकती है। अपने अंदर झांककर अपनी प्रतिभा को टटोलें कि किन क्षेत्रों में आप अपनी दक्षता को विकसित कर बाजी मार सकते हैं। जो क्षेत्र आपको सर्वाधिक उपयुक्त लगे, उसमें विशेषज्ञों की सलाह लेकर अपना कौशल बढ़ाएं।

आत्मविश्वास विकसित करें- जीवन के कुरुक्षेत्र में आधी लड़ाई तो आत्मविश्वास द्वारा ही लड़ी जाती है। यदि योग्यता के साथ आत्मविश्वास विकसित किया जाए तो करियर के कुरुक्षेत्र में आपको कोई पराजित नहीं कर पाएगा। अध्ययन के साथ-साथ उन गतिविधियों में भी हिस्सा लें, जिनसे आपका आत्मविश्वास बढ़े। कार्यशालाओं और व्यक्तित्व विकास वाली संस्थाओं में यही सब तो किया जाता है।

कॉन्टैक्ट बढ़ाएं- याद रखें यह जमाना ही सूचना प्रौद्योगिकी का है। यहां जितनी जानकारी, जितनी सूचनाएं आपके पास होंगी, करियर निर्माण की राह उतनी ही आसान होगी। कूपमंडूकता छोड़ें, ज्यादा से ज्यादा लोगों से मिलें, उन्हें अपनी जानकारी दें, उनकी जानकारी लें। आपके जानने वालों का संजाल जितना लंबा होगा सफलता उतनी ही आपके करीब होगी। क्योंकि संपर्क, सफलता में उत्प्रेरक की भूमिका निभाता है।

तकनीक के साथ साथ चलें- पुराना भले ही सुहाना माना जाता हो, लेकिन आज की प्रतिस्पर्धा में नई तकनीक का महत्व नकारा नहीं जा सकता है। किसी भी क्षेत्र में प्रवेश से पहले पूछा जाता है, क्या कम्प्यूटर चलाना आता है? कम्प्यूटर के आधारभूत ज्ञान के बजाय थोड़ी ज्यादा दिलचस्पी दिखाएं क्योंकि यही वह अलादीन है, जो करियर निर्माण की हर मांग को पूरा कर सकता है।

परिवार से मुंह न मोड़ें- अकसर देखा गया है कि करियर निर्माण की चिंता में लोग घर-परिवार को भूल जाते हैं। परेशानी और तकलीफ के वक्त परिवार ही काम आता है, इसलिए परिवार को पर्याप्त समय दें। पारिवारिक आमोद-प्रमोद से करियर का संघर्ष आसान हो जाता है तथा आप तनावमुक्त होकर करियर निर्माण की राह पर अग्रसर हो सकते हैं।

दूसरों से व्यवहार करना सीखें- आपका संघर्ष, आपकी परेशानी नितांत निजी मामला है। इसका असर दूसरों के साथ अपने व्यवहार में न आने दें। जो सभी के साथ मिलकर काम करना सीख लेता है वह पीछे मुड़कर नहीं देखता क्योंकि टीमवर्क के रूप में कार्य करना ही मैनेजमेंट का मूलमंत्र है।

डींगें न हांकें, ईमानदार रहें- झूठ ज्यादा देर टिकता नहीं है। अपने बारे में सही आकलन कर वास्तविक तस्वीर पेश करें। निष्ठापूर्ण व्यवहार की सभी कद्र करते हैं। अपने काम के प्रति आपकी ईमानदारी आपको करियर निर्माण में सर्वोच्च स्थान दिला सकती है। भूलें नहीं, कार्य ही पूजा है।

ओवर एंबिशियस न बनें- प्रत्येक इंसान में महत्वाकांक्षा का होना जितना अच्छा है, उसकी अतिमहत्वाकांक्षा उतनी ही नुकसानदायक होती है क्योंकि 'अति सर्वत्र वर्जयेत।' किसी करिश्मे की उम्मीद न करें। सभी चीजें समय पर ही मिलती हैं। पहले अनुभव प्राप्त करें, फिर आकांक्षा करें।

वक्त के अनुसार खुद को बदलें- आज करियर निर्माण बाजार में उपलब्ध उपभोक्ता वस्तुओं की तरह हो गया है। प्रतिस्पर्धा के बाजार में वही वस्तु टिक सकती है, जिसमें समयानुसार ढलने की प्रवृत्ति हो। करियर के बाजार में अपना मूल्य समझें और स्वयं को बिकाऊ बनाने का प्रयास करें। ध्यान रहे 'परिवर्तन ही संसार का नियम है।'

नई तकनीक के उस्ताद बनें- नई तकनीक की करियर निर्माण में हमेशा मांग रहती है। इससे पहले कि कोई नई तकनीक पुरानी हो जाए आप उसके उस्ताद बन जाएं। जैसे-जैसे नई तकनीक आती जाए आप उससे तालमेल करना सीख लें। अपने ज्ञान को परिमार्जित करते रहें। भविष्य उसी का होता है, जो अपने को श्रेष्ठतम तरीके से अनुकूल रूप से ढाल लेता है।
वेबदुनिया डेस्क

बि‍ना दुख के सुख नहीं मि‍लता


इसलिए आज के इस दौर में मेंटल टफनेस का होना बहुत जरूरी है। मेंटल टफनेस का अर्थ है तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों में रहकर भी हर बाधाओं को पार करते हुए पॉजीटिव होकर आगे बढ़ते रहना। इसके लिए यहां कुछ एक्शन टिप्स दिए जा रहे हैं जिनसे स्टूडेंट्स अपनी मेंटल टफनेस को हासिल कर सकते हैं। 

एक्सपर्ट्स की सुनें- खुद में मेंटल टफनेस डेवेलप्ड करने के लिए स्टूडेंट्स उन लोगों की बॉयोग्राफिज और ऑडियो प्रोग्राम्स पढ़-सुन सकते हैं जिन्होंने तमाम विपरीत हालातों में कामयाबी हासिल की। दुनिया में ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने यह कर दिखाया है। 

इसके अलावा इंटरनेट पर या मैग्जीन्स में सक्सेस स्टोरीज पढ़ सकते हैं। ये स्टूडेंट्स को इंस्पायर करती हैं और उनके मन में उत्साह पैदा करती हैं। यह पढ़कर सोचिए कि आपमें और उनमें कोई अंतर नहीं। बस सोच का अंतर है क्योंकि उन्हें विश्वास था कि वे कामयाब होंगे। तो आप क्यों नहीं हो सकते। 

बि‍ना दुख के सुख नहीं मि‍लता- यह एक मिथ है कि बिना किसी परेशानी या तकलीफ के कामयाबी हासिल की जा सकती है। तमाम तरह की सक्सेस स्टोरीज पढ़ें तो यह पाएँगे कि उन्होंने कामयाबी का स्वाद चखने के पहले कई तरह के फिजिकल और इमोशनल पेन सहे। इसलिए बेहतर यह होगा कि आप अपनी गलतियों के साथ ही दूसरों की गलतियों से भी सीखें। 

यही सीख आपको इंस्पायर करेगी कि आप मजबूती से आगे बढ़ते जाएं, अपनी तकलीफों और परेशानियों को भूलकर। अपने से अपेक्षा रखें और उन्हें पूरा करने की ताकत हासिल करते रहें। 

कल की चिंता न करें और सदैव अपने गोल की ओर केंद्रि‍त रहें। छोटी-छोटी नाकामि‍यों से परेशान, उदास और हतोत्‍साहि‍त न हों। छोटी बातों में उलझेंगे तो छोटे होकर रह जाएंगे। 

प्रॉब्लम क्या है- अपनी समस्याओं को पहचानें। उन्हें जानने और समझने की कोशिश करें। आप यह जान लेंगे तो उसके हल या उपाय के बारे में बेहतर ढंग से सोच सकेंगे। और यदि सोच सकेंगे तो उसे हल करने की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे। यदि आप यह देख पाएंगे कि आपसे क्या गलतियां हुई हैं तो फिर इस बात पर एकाग्र करें कि आप कैसे आगे बढ़ सकते हैं। 

करें कुछ हट के- कई बार स्टूडेंट्स रूटीन में फंसे होते हैं। कभी-कभी यह कोशिश करिए कि रूटीन से हटकर काम कर सकें। जो वर्कआउट रोज करते हैं, उसे रोज बदलते रहें। अपने टीवी को एक माह के लिए अलमारी में बंद कर दें, क्योंकि यह आपका काफी समय और एनर्जी खा जाता है। इससे आप अलग-अलग माहौल में आत्मविश्वास के साथ रहना सीखेंगे। 

फिट रहें- हेल्थ के प्रति सचेत रहें। इसके प्रति खुद को ट्रेंड भी करते रहें। आपके लिए क्या खानपान होना चाहिए, किस तरह की एक्यह टफ कॉम्पीटिशन का दौर है। यह करियर में नई ऊंचाइयां हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत करने का भी दौर है। करियर चाहे एमबीए में बनाना हो या होटल मैनेजमेंट में, रेडियो जॉकी बनना हो या एनिमेटर, आज हर स्टूडेंट के लिए जरूरी है मेंटल टफनेस। इसके अभाव में बहुधा कई स्टूडेंट्स जल्दी हताश और निराश हो जाते हैं, टूट जाते हैं और डिप्रेस्ड हो जाते हैं। 

साथ रहें- मेंटल टफनेस में भी अकेले न रहें और न ही अकेले काम करें। ऐसे लोगों के साथ भी न रहें जो खुद को असफल मानते हैं और अब तक कुछ अचीव नहीं कर पाए हैं। उनका फ्रस्‍ट्रेशन आपको भी परेशान करेगा।

गोल पर रहे ध्‍यान- कल की चिंता न करें और सदैव अपने लक्ष्‍य की ओर केंद्रि‍त रहें। छोटी-छोटी नाकामि‍यों से परेशान, उदास और हतोत्‍साहि‍त न हों। छोटी बातों में उलझेंगे तो छोटे होकर रह जाएंगे।

Tuesday, May 1, 2012

अपना दीपक खुद बनो


बुद्ध ने मोक्षदाता होने का दावा कभी नहीं किया। भगवान बुद्ध कहते थे : बुद्ध तो केवल मार्ग दर्शक हैं, वे अपनी शिक्षाओं द्वारा धर्म का रास्ता बनाते हैं, चलना तो हर किसी को स्वयं पड़ता है। इसीलिए वे हर व्यक्ति को आत्म निर्भर बनने की शिक्षा देते हैं और कहते हैं, अप्प दीपो भव -यानी अपना दीपक खुद बनो।
एक बार भगवान बुद्ध श्रावस्ती में विहार कर रहे थे। जो लोग वहां प्रतिदिन आते थे, उनमें मोग्गालन नामक एक युवक भी था। एक दिन उसने बुद्ध से कहा, आप के संघ में कुछ लोग तो अर्हत पद को प्राप्त हो चुके हैं और कुछ लोग होने वाले हैं। लेकिन बहुत सारे अनुयायी ऐसे भी हैं, जिनको आपके उपदेश सुन कर शांति तो मिलती है, लेकिन वे उन्हें अपने जीवन में लागू नहीं कर पाते। आप उन सबको निर्वाण सुख देकर संसार के बंधनों से मुक्त क्यों नहीं करते?
बुद्ध ने उससे पूछा कि वो कहां का रहने वाला है? मोग्गालन ने बताया कि वो राजगृह से है। बुद्ध ने पूछा कि क्या वो राजगृह आने- जाने का रास्ता जानता है? मोग्गालन के हां कहने पर बुद्ध बोले कि कोई आदमी राजगृह जाने का रास्ता पूछता है और मोग्गालन के बताने के बावजूद वो उस रास्ते में न चलकर उल्टी दिशा में जाए तो क्या राजगृह पहुंच जाएगा?
मोग्गालन ने इनकार में सिर हिला दिया, कभी नहीं। तब बुद्ध मुस्कुरा कर बोले, तथागत का काम भी धम्म का रास्ता बताना होता है। यदि कोई व्यक्ति उस राह पर चले नहीं और बुद्धं शरणं गच्छामि करता रहे, तो वह कैसे भव बंधनों से मुक्त होगा?
कालामों कोउपदेश देते हुए उन्होंने कहा : किसी बात को इसलिए मत मानो क्योंकि ऐसा सदियों से होता आया है। किसी बातको इसलिए भी मत मानो कि बड़े लोग या विद्वान लोग ऐसा कहते हैं। किसी बात को इसलिए भी मत मानो किग्रंथों में ऐसा लिखा हुआ है। किसी भी बात को अपनी अनुभूति से परखने के बाद ही स्वीकार करो।

बुद्ध ने कहा, शील, समाधि और प्रज्ञा का रास्ता सभी के लिए खुला है। कोई भी व्यक्ति इस रास्ते पर चल करवहां पहुंच सकता है, जहां बुद्ध हुआ जाता है। लेकिन इसके लिए स्वयं चलना पड़ेगा। जिसने अपने चित्त से राग,द्वेष और मोह को समूल नष्ट कर दिया, वह भगवान हो गया। तथागत का अर्थ है 'तथता' -अर्थात सत्य के सहारेजिसने 'परम सत्य' का साक्षात्कार किया हो। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति जो सांसारिक दुखों से छुटकारा पाकर निर्वाणसुख प्राप्त करना चाहता है, उसे स्वयं ही शील, समाधि और प्रज्ञा के मार्ग पर चलना पड़ेगा।

उन्होंने कहा, देवता, अर्हत पद और भगवान -ये सब चित्त की अवस्थाएं हैं। चित्त ज्यों-ज्यों निर्मल होता जाता है,प्रेम, मुदिता, मैत्री, बंधुत्व और क्षमा की भावना बढ़ती जाती है। और मनुष्य उत्तरोत्तर उन्नति करता जाता है।

बुद्ध के अनुसार प्रकृति के नियमों के अनुसार आचरण करना ही धर्म है। ये नियम सार्वजनीन, सार्वकालिक औरसार्वदेशिक होते हैं। प्रकृति कभी नस्ल, वर्ण, रंग,रूप, लिंग, उम्र, हैसियत, स्थान आदि में भेदभाव नहीं करती।प्रकृति के नियम जैसे शरीर के बाहर काम करते हैं, ठीक उसी तरह शरीर के भीतर भी काम करते हैं। क्रोध आनेपर, लालच, ईर्ष्या और वासना जागने पर हर प्राणी को व्याकुल होना ही पड़ता है, चाहे वह किसी भी लिंग,जाति, वर्ग, धर्म या देश का हो, या किसी भी समय में हो। जो भी व्यक्ति प्रकृति के नियमों के अनुसार जीवनयापन करता है, वह सुखी व शांत रहता है। और जो निसर्ग के नियमों का उल्लंघन करता है वह दुखी व व्याकुलहोता है। इसका कोई अपवाद नहीं है ।

वैशाख पूर्णिमा के दिन लुंबिनी में बुद्ध का जन्म हुआ था। इसी दिन बोध गया में उनको बुद्धत्व प्राप्त हुआ औरइसी दिन कुशीनगर में उनका महापरिनिर्वाण हुआ। इसीलिए इस पूर्णिमा को बुद्ध पूर्णिमा कहते हैं और इस दिनको पवित्र मानते हैं। जन्म और मृत्यु तो हर इंसान के जीवन की प्राकृतिक घटनाएं हैं, लेकिन बुद्धत्व की प्राप्ति एकअसाधारण प्राप्ति है, जो कठिन तप और साधना से ही मिलती है।