Saturday, March 31, 2012

'विचार योग' से पाएं सेहत, खुशी और सफलता

  अजीब है कि कोई दवा नहीं, एक्सरसाइज नहीं और कोई भी इलाज नहीं फिर भी लोग सोचकर कैसे ठीक हो सकते हैं? दुनिया में ऐसे बहुत से चमत्कार हुए हैं, लेकिन इसके पीछे के रहस्य को कोई नहीं जानता।
आज आप जो भी हैं वह आपके पिछले विचारों का परिणाम है-भगवान बुद्ध।
सोचे अपनी सोच पर कि वह कितनी नकारात्म और कितनी सकारात्मक है, वह कितनी सही और कितनी गलत है। आप कितना अपने और दूसरों के बारे में अच्‍छा और बुरा सोचते रहते हैं। योग आपकी सोच को स्वस्थ बनाता है। सोच के स्वस्थ बनने से चित्त निर्मल होने लगता है। चित्त के निर्मल रहने से सेहत, खुशी और सफलता मिलती है तो विचार करें अच्छे विचार पर।
कैसे होगा यह संभव : योगश्चित्त्वृतिनिरोध:- योग चित्त की वृत्तियों का निरोध है। योग के आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार आदि सभी उपक्रम आपके चित्त को शुद्ध और बुद्ध बनाने के ही उपक्रम हैं। चित्त से ही व्यक्ति का शरीर, मन, मस्तिष्क और जीवन संचालित होता है। चित्त यदि रोग ग्रस्त है तो इसका असर सभी पर पड़ता है। रोग की उत्पत्ति बाहर की अपेक्षा भीतर से कहीं ज्यादा होती है तो समझे कि जैसे भीतर वैसा बाहर। 
वैज्ञानिक कहते हैं मानव मस्तिष्क में 24 घंटे में लगभग हजारों विचार आते हैं। उनमें से ज्यादातर नकारात्मक होते हैं। नकारात्मक विचार इसलिए अधिक होते हैं कि जब हम कोई नकारात्मक घटना देखते हैं जिसमें भय, राग, द्वैष, सेक्स आदि हो तो वह घटना या विचार हमारे चित्त की इनर मेमोरी में सीधा चला जाता है जबकि कोई अच्छी बातें हमारे चित्त की आउटर मेमोरी में ही घुम फिरकर दम तोड़ देती है।
दो तरह की मेमोरी होती है-इनर और आउटर। इनर मेमोरी में वह डाटा सेव हो जाता है, जिसका आपके मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़श है और फिर फिर वह डाटा कभी नहीं मिटता। रात को सोते समय इनर मेमोरी सक्रिय रहती है और सुबह-सुबह उठते वक्त भी इनर मेमोरी जागी हुई होती है। अपनी इनर मेमोरी अर्थात चित्त से व्यर्थ और नकारात्मक डाटा को हटाओ और सेहत, सफलता, खुशी और शांति की ओर एक-एक कदम बढ़ाओ।
कैसे बन जाता है व्यक्ति दुखी और रोगी : जो भी विचार निरंतर आ रहा है वह धारणा का रूप धर लेता है। अर्थात वह हमारी इनर मेमोरी में चला जाता है। आपके आसपास बुरे घटनाक्रम घटे हैं और आप उसको बार-बार याद करते हैं तो वह याद धारणा बनकर चित्त में स्थाई रूप ले लेगी। बुरे विचार या घटनाक्रम को बार-बार याद न करें।
विचार ही वस्तु बन जाते हैं। इसका सीधा-सा मतलब यह है कि हम जैसा सोचते हैं वैसे ही भविष्य का निर्माण करते हैं। यदि आपको अपनी सेहत को लेकर भय है, सफलता को लेकर संदेह है और आप विश्वास खो चुके हैं तो समझ जाएं की चित्त रोगी हो गया है। किसी व्यक्ति के जीवन में बुरे घटनाक्रम बार-बार सामने आ जाते हैं तो इसका सीधा सा कारण है वह अपने अतीत के बारे में हद से ज्यादा विचार कर रहा है। बहुत से लोग डरे रहते हैं इस बात से कि कहीं मुझे भी वह रोग न हो जाए या कहीं मेरे साथ भी ऐसा न हो जाए....आदि। सोचे सिर्फ वर्तमान को सुधारने के बारे में।
कैसे होगा यह संभव : योग के तीन अंग ईश्वर प्राणिधान, स्वाध्याय और धारणा से होगा यह संभव। जैसा ‍कि हमने उपर लिखा की इनर और आउटर मेमोरी होती है। इनर मेमोरी रात को सोते वक्त और सुबह उठते वक्त सक्रिय रही है उस वक्त वह दिनभर के घटनाक्रम, विचार आदि से महत्वपूर्ण डाडा को सेव करती है। इसीलिए सभी धर्म ने उस वक्त को ईश्वर प्रार्थना के लिऋ नियु‍क्त किया है ताकि तुम वह सोचकर सो जाए और वही सोचकर उठो जो शुभ है। इसीलिए योग में 'ईश्वर प्राणिधान' का महत्व है।
संधिकाल अर्थात जब सूर्य उदय होने वाला होता है और जब सूर्य अस्त हो जाता है तो उक्त दो वक्त को संधिकाल कहते हैं- ऐसी दिन और रात में मिलाकर कुल आठ संधिकाल होते हैं। उस वक्त हिंदू धर्म और योग में प्रार्थना या संध्यावंन का महत्व बताया गया है। फिर भी प्रात: और शाम की संधि सभी के लिए महत्वपूर्ण है जबकि हमारी इनर मेमोरी सक्रिय रहती है। ऐसे वक्त जबकि पक्षी अपने घर को लौट रहे होते हैं...संध्यावंदन करते हुए अच्छे विचारों पर सोचना चाहिए। जैसे की मैं सेहतमंद बना रहना चाहता हूं।
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ईश्वर प्राणिधान: सिर्फ एक ही ईश्वर है जिसे ब्रह्म या परमेश्वर कहा गया है। इसके अलावा और कोई दूसरा ईश्वर नहीं है। ईश्वर निराकार है यही अद्वैत सत्य है। ईश्वर प्राणिधान का अर्थ है, ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण। ईश्वर के प्रति पूर्ण विश्वास। न देवी, न देवता, न पीर और न ही गुरु घंटाल।
एक ही ईश्वर के प्रति अडिग रहने वाले के मन में दृढ़ता आती है। यह दृढ़ता ही उसकी जीत का कारण है। चाहे सुख हो या घोर दुःख, उसके प्रति अपनी आस्था को डिगाएँ नहीं। इससे आपके भीतर पाँचों इंद्रियों में एकजुटता आएगी और लक्ष्य को भेदने की ताकत बढ़ेगी। वे लोग जो अपनी आस्था बदलते रहते हैं, भीतर से कमजोर होते जाते हैं।
विश्वास रखें सिर्फ 'ईश्वर' में, इससे बिखरी हुई सोच को एक नई दिशा मिलेगी। और जब आपकी सोच सिर्फ एक ही दिशा में बहने लगेगी तो वह धारणा का रूप धर लेगी और फिर आप सोचे अपने बारे में सिर्फ अच्‍छा और सिर्फ अच्छा। ईश्वर आपकी मनोकामना अवश्य पूरी करेगा।
स्वाध्याय : स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं का अध्ययन करना। अच्छे विचारों का अध्ययन करना और इस अध्ययन का अभ्यास करना। आप स्वयं के ज्ञान, कर्म और व्यवहार की समीक्षा करते हुए पढ़ें, वह सब कुछ जिससे आपके जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता हो साथ ही आपको इससे खुशी ‍भी मिलती हो। तो बेहतर किताबों को अपना मित्र बनाएँ।
जीवन को नई दिशा देने की शुरुआत आप छोटे-छोटे संकल्प से कर सकते हैं। संकल्प लें कि आज से मैं बदल दूँगा वह सब कुछ जिसे बदलने के लिए मैं न जाने कब से सोच रहा हूँ। अच्छा सोचना और महसूस करना स्वाध्याय की पहली शर्त है।
धारणा से पाएं मनचाही सेहत, खुशी और सफलता : जो विचार धीरे-धीरे जाने-अनजाने दृढ़ होने लगते हैं वह धारणा का रूप धर लेते हैं। यह भी कि श्वास-प्रश्वास के मंद व शांत होने पर, इंद्रियों के विषयों से हटने पर, मन अपने आप स्थिर होकर शरीर के अंतर्गत किसी स्थान विशेष में स्थिर हो जाता है तो ऊर्जा का बहाव भी एक ही दिशा में होता है। ऐसे चित्त की शक्ति बढ़ जाती है, फिर वह जो भी सोचता है वह घटित होने लगता है। जो लोग दृढ़ निश्चयी होते हैं, अनजाने में ही उनकी भी धारणा पुष्ट होने लगती है।

अनिरुद्ध जोशी 'शतायु

Saturday, March 24, 2012

ध्यान की शुरुआत के पूर्व की क्रिया


वर्तमान में ध्यान की आवश्यकता बढ़ गई है। व्यग्र और बैचेन मन के चलते जहाँ व्यक्ति मानसिक तनाव से घिरा रहता हैं वहीं यह मौसमी और अन्य गंभीर रोगों की चपेट में भी आ जाता है। दवाई से कुछ हद तक रोग का निदान हो जाता है, लेकिन जीवनभर कमजोरी रह जाती है। ध्यान तो दवा, दुआ और टॉनिक तीनों का काम करता है। 
ध्यान की‍ शुरुआती हिदायत : शुरुआत में शरीर और मन की सभी हलचलों पर ध्यान दें और उनका निरीक्षण करें। शरीर पर, मन पर और आस-पास जो भी घटित हो रहा है उस पर गौर करें। विचारों के क्रिया-कलापों पर और भावों पर चुपचाप गौर करें। इस ध्यान देने के जरा से प्रयास से ही चित्त स्थिर होकर शांत होता है तथा जागरूकता बढ़ती। वर्तमान में जीने से ही जागरूकता जन्मती है। भविष्य की कल्पनाओं और अतीत के सुख-दुख में जीना ध्यान विरूद्ध है। 
ध्यान की शुरुआती विधि : प्रारंभ में सिद्धासन में बैठकर आँखें बंद कर लें और दाएँ हाथ को दाएँ घुटने पर तथा बाएँ हाथ को बाएँ घुटने पर रखकर, रीढ़ सीधी रखते हुए गहरी श्वास लें और छोड़े। सिर्फ पाँच मिनट श्वासों के इस आवागमन पर ध्यान दें कि कैसे यह श्वास भीतर कहाँ तक जाती है और फिर कैसे यह श्वास बाहर कहाँ तक आती है। पूर्णत: भीतर कर मौन का मजा लें। मौन जब घटित होता है तो व्यक्ति में साक्षी भाव का उदय होता है। सोचना शरीर की व्यर्थ क्रिया है और बोध करना मन का स्वभाव है।
ध्यान की अवधि : उपरोक्त ध्यान विधि को नियमित 30 दिनों तक करते रहें। 30 दिनों बाद इसकी समय अवधि 5 मिनट से बढ़ाकर अगले 30 दिनों के लिए 10 मिनट और फिर अगले 30 दिनों के लिए 20 मिनट कर दें। शक्ति को संवरक्षित करने के लिए 90 दिन काफी है। इससे जारी रखें।
सावधानी : ध्यान किसी स्वच्छ और शांत वातावरण में करें। ध्यान करते वक्त सोना मना है। ध्यान करते वक्त सोचना बहुत होता है। लेकिन यह सोचने पर कि 'मैं क्यों सोच रहा हूँ' कुछ देर के लिए सोच रुक जाती है। सिर्फ श्वास पर ही ध्यान दें और संकल्प कर लें कि 20 मिनट के लिए मैं अपने दिमाग को शून्य कर देना चाहता हूँ।
ध्यान के लाभ : जो व्यक्ति ध्यान करना शुरू करते हैं, वह शांत होने लगते हैं। यह शांति ही मन और शरीर को मजबूती प्रदान करती है। ध्यान आपके होश पर से भावना और विचारों के बादल को हटाकर शुद्ध रूप से आपको वर्तमान में खड़ा कर देता है।
ध्यान से ब्लडप्रेशर, घबराहट, हार्टअटैक जै‍सी बीमारियों पर कंट्रोल किया जा सकता है। ध्यान से सभी तरह के मानसिक रोग, टेंशन और डिप्रेशन दूर होते हैं। ध्यान से रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता हैं। स्मृति दोष में लाभ मिलता है। तेज और एकाग्र दिमाग के लिए ध्यान करना एक उत्तम और कारगर उपाय है। ध्यान से आँखों को राहत मिलती है जिससे उसकी देखने की क्षमता का विकास होता है। 

विकसित करें स्वयं की दर्शन शक्ति ब्रह्म का ज्ञान नहीं, बोध चाहिए


ब्रह्म का ज्ञान नहीं, बोध चाहिए। ज्ञान इंद्रियों से उत्पन्न होता है और बोध इंद्रियों से परे की बात है। इंद्रियाँ शांत हों तभी बोध की किरणें अंतःकरण में फैलती हैं। बोध हो जाए तो यह भाव नहीं रहता कि मैं परमात्मा को जानता हूँ या परमात्मा का मुझे बोध है। तब तो यही भाव रहता है कि परमात्मा ने कृपापूर्वक स्वयं को जान लिया है। और तब केवल परमात्मा ही शेष रहता है। 

ऐसी दशा में व्यक्ति का अंतःकरण परमात्मा बोध की अनुभूति कर स्थितप्रज्ञ बन जाता है।
व्यक्ति का निर्मल अंतःकरण अलौकिक, अनिर्वचनीय ब्रह्म की अभिव्यक्ति का माध्यम बनता है। जैसे निश्चल निर्मल जल की सतह पर निर्मल चंद्र प्रतिबिम्बित होता है, मलिन, हलचल से भरे सरोवर में शांत निर्मल चंद्रबिंब भी अशांत और पंकिल प्रतीत होता है, उसी प्रकार अशांत और इंद्रियों से पराभूत अंतःकरण से शुद्ध बुद्ध मुक्त ब्रह्म भी क्षय-उपचय से युक्त, म्लान तथा सीमाबद्ध भासता है।
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उपनिषद कहते हैं कि ब्रह्म को इंद्रिय ग्राह्य मानने वाला अज्ञानी है। जिसने मान लिया है कि मैं जानता हूँ, उसने कुछ नहीं जाना। जो शांत हो गया है ज्ञान और अज्ञान के प्रति तटस्थ हो गया है, जो ज्ञान और अज्ञान का साक्षी बन गया है, वह ब्रह्म रूप हो गया है। ब्रह्म जाना नहीं जाता, ब्रह्म हुआ जाता है। इसके होने की कोई व्याख्या नहीं कि जा सकती। होना अस्तित्व है। अस्तित्व का अनुभव ही किया जा सकता है
वस्तुतः ब्रह्म को नहीं जानते, वे कभी न कभी जान सकते हैं। ऐसे लोग परमात्मा के निकट ही हैं। साथ ही जो ब्रह्म को जानने का दावा करते चलते हैं, वे कभी नहीं जान सकते। ऐसे लोग परमात्मा से बहुत दूर हैं। उपनिषद् कहते हैं कि ब्रह्म को न जानने वाले अज्ञानी अंधेरों भरी जिंदगी जीते हैं। परंतु ब्रह्म को जानने की बात करने वाला अभिमानी तो घोर अंधेरों में डूबते हैं। जहाँ पुनः उनके जीवन में प्रकाश की कोई संभावना ही नहीं रहती
चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा है। दिखाई तो कुछ पड़ता नहीं। परंतु हम यह मानने को तैयार नहीं है कि कुछ दिखाई नहीं पड़ता है। जहाँ सभी भटके ही होते हैं वहाँ कभी भूल कर कोई सुलझी आँख वाला पहुँच भी जाए तो उसका मखौल बनता है। और उस स्वयं का दर्शन करने की दृष्टि रखने वाले का मजाक उड़ाते हैं। ऐसों के संसार में उनका अगुआ भी तो कोई ऐसा ही होता है। उपनिषद् कहते हैं कि ऐसे अविद्या में डूबे लोग अपने को ब्रह्मज्ञानी पंडित मानकर स्वयं तो नष्ट होते ही हैं, सारे समाज को भी नष्ट करते हैं। 
समाज में ऐसे भटके हुए एवं भ्रमितों की भीड़ है। उनकी अगुवाई से मनुष्य को बचना है और स्वयं की आँख खोलकर चलना है। भ्रमितों के दिखाने पर जो चलेगा, वह गर्त में अवश्य गिरेगा। स्वयं की दर्शन शक्ति विकसित करना है। स्वयं के आवरण का भेदन कर परम प्रभु से नाता जोड़ना है।
पं. गोविंद बल्लभ जोशी  
सौजन्य से - नईदुनिया दिल्ली

परहित : जीवन का सबसे बड़ा पुण्य


यदि आप जीवन में सुख-शांति चाहते हैं तो दूसरों को सुख देने की कोशिश करें। याद रखें संसार में सुख ज्यादा है दुख कम। 85 प्रतिशत दुख हम अपनी बेवकूफी से पैदा करते हैं। 15 प्रतिशत दुख दुष्कर्म से प्राप्त होता है। किसी को तीन लड़कियां हैं, लड़का नहीं, तो दुख। किसी को व्यापार में घाटा हो गया तो दुख। लड़का तो पैदा हुआ, परंतु आज्ञाकारी नहीं निकला तो और ज्यादा दुख होता है। 
यह दुख तो प्रयत्न एवं पुरुषार्थ तथा मालिक की कृपा से सुख में बदल सकते हैं। लेकिन संसार में सबके दुख का कारण एक ही है। आज का इंसान अपने दुख से बहुत कम दुखी है, परंतु दूसरे के सुख को देखकर ज्यादा दुखी है। 
आज का इंसान अपने बनते हुए घर को देखकर कम खुश है, परंतु दूसरे के जलते हुए घर को देखकर ज्यादा खुश है। एक बार राजा जनक के पास तत्ववेत्ता ऋषि पहुंचे। राजा अपना सिंहासन छोड़कर आए और ऋषि को दंडवत प्रणाम कर आसन पर बैठा कर कहने लगे ऋषिवर, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं? ऋषि बोले- हे राजन्‌! आपके इस नगर के समीप मेरा गुरुकुल आम है। वहां एक हजार ब्रह्मचारी विद्या अर्जन करते हैं। मुझे आम के विद्यार्थियों के दूध पीने के लिए गौ चाहिए। 
राजा जनक महान ज्ञानी एवं विद्वत्‌ अनुरागी तो थे ही, जिज्ञासु स्वभाव के भी थे। ऋषिवर से बोले- मैं आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूं। बताइए कि मेरी हथेली में बाल क्यों नहीं हैं? ऋषि बोले- आप दान ज्यादा देते हैं, इसलिए आपकी हथेली में बाल नहीं हैं। राजा संतुष्ट नहीं हुए।  
इसी प्रकार आदित्य ब्रह्मचारी ऋषि दयानंद ने संसार के लोगों को एक संदेश दिया कि प्रत्येक को अपनी ही उन्नति में संतुष्ट नहीं होना चाहिए बल्कि सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए। इस प्रकार विचारधारा रखने वाले लोग शांति को प्राप्त करते हैं। 
जो व्यक्ति दूसरे के सुख को देखकर जलता हो तो यह मानना चाहिए कि वह राजयक्ष्मा रोग का शिकार है। अगर दुष्टता मनुष्य में आ जाए, तो वहीं कोढ़ है। 
तुलसी जी ने इसे मानस रोग कहा है। - 'पर सुख देखि जरनि सोई छुई। कुष्ट दुष्टता मान कुटिलई।' जहां राजयक्ष्मा और कोढ़ दोनों एक ही जगह हो तो मानना सर्वनाश ही सर्वनाश है। शांति का द्वार सदा बंद है। जिसका स्वभाव दूसरे के सुख को देखकर जलने का हो तो मानना चाहिएक कि उसके जीवन में मंथरा है। 
यदि जीवन में शांति, प्रसन्नता, आनंद चाहते हो तो दूसरे के सुख में सुखी रहो, दूसरे के दुख में दुखी रहने का स्वभाव बनाओ। 
आचार्य चन्द्रशेखर शास्त्री

Thursday, March 22, 2012

वास्तु में फेरबदल कर पाएँ कर्ज से मुक्ति


कर्ज चुकाने की स्थिति आदमी को अत्यंत दुविधा में डाल देती है। आदमी के मन में रात-दिन सिर्फ उसे चुकाने के लिए मानसिक उद्वेग बने रहते हैं। कुछ परिस्थितियों के कारण कर्ज लेने की स्थिति बन जाती है। न चाहते हुए भी कर्ज खत्म होने का नाम नहीं लेता। इसका कारण हमारे घर का वास्तु दोष भी है, जिसके कारण कर्ज का बोझ परेशान करता है। एक कर्ज उतरा नहीं, दूसरा लेने की नौबत आ जाती है तथा इस स्थिति से छुटकारा नहीं मिलता।
एक बार वास्तु से जुड़े तथ्यों पर ध्यान देकर भी कर्ज से छुटकारा पा सकते हैं। इस बारे में आपको कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी देते हैं।
- कर्ज से बचने के लिए उत्तर व दक्षिण की दीवार बिलकुल सीधी बनवाएँ।
-उत्तर की दीवार हलकी नीची होनी चाहिए। कोई भी कोना कटा हुआ न हो, न ही कम होना चाहिए। गलत दीवार से धन का अभाव हो जाता है।
-यदि कर्ज अधिक बना हुआ है और परेशान हैं तो ईशान कोण को 90 डिग्री से कम कर दें।
-इसके अलावा उत्तर-पूर्व भाग में भूमिगत टैंक या टंकी बनवा दें। टंकी की लम्बाई, चौड़ाई व गहराई के अनुरूप आय बढ़ेगी। उत्तर-पूर्व का तल कम से कम 2 से 3 फीट तक गहरा करवा दें।
-दक्षिण-पश्चिम व दक्षिण दिशा में भूमिगत टैंक, कुआँ या नल होने पर घर में दरिद्रता का वास होता है।
- दो भवनों के बीच घिरा हुआ भवन या भारी भवनों के बीच दबा हुआ भूखण्ड खरीदने से बचें क्योंकि दबा हुआ भूखंड गरीबी एवं कर्ज का सूचक है।
-उत्तर दिशा की ओर ढलान जितनी अधिक होगी संपत्ति में उतनी ही वृद्धि होगी।
-यदि कर्ज से अत्यधिक परेशान हैं तो ढलान ईशान दिशा की ओर करा दें, कर्ज से मुक्ति मिलेगी।
-पूर्व तथा उत्तर दिशा में भूलकर भी भारी वस्तु न रखें अन्यथा कर्ज, हानि व घाटे का सामना करना पड़ेगा।
-भवन के मध्य भाग में अंडर ग्राउन्ड टैंक या बेसटैंक न बनवाएँ। मकान का मध्य भाग थोड़ा ऊँचा रखें। इसे नीचा रखने से बिखराव पैदा होगा।
-यदि उत्तर दिशा में ऊँची दीवार बनी है तो उसे छोटा करके दक्षिण में ऊँची दीवार बना दें।
-इसके अलावा दक्षिण-पश्चिम के कोने में पीतल या ताँबे का घड़ा लगा दें। उत्तर या पूर्व की दीवार पर उत्तर-पूर्व की ओर लगे दर्पण लाभदायक होते हैं। दर्पण के फ्रेम पर या दर्पण के पीछे लाल, सिंदूरी या मैरून कलर नहीं होना चाहिए। दर्पण जितना हलका तथा बड़े आकार का होगा, उतना ही लाभदायक होगा, व्यापार तेजी से चल पड़ेगा तथा कर्ज खत्म हो जाएगा।
- दक्षिण तथा पश्चिम की दीवार के दर्पण हानिकारक होते हैं।
दक्षिणी-पश्चिमी, पश्चिमी-उत्तरी या मध्य भाग का चमकीला फर्श या दर्पण गहराई दर्शाता है, जो धन के विनाश का सूचक होता है। फर्श पर मोटी दरी, कालीन आदि बिछाकर कर्ज व दिवालिएपन से बचा जा सकता है। दरवाजे उत्तर-पूर्व दिशा में होने चाहिए।
पश्चिमी-दक्षिणी भाग में फर्श पर उल्टा दर्पण रखने से फर्श ऊँचा उठ जाता है। फलतः कर्ज से मुक्ति मिलती है। उत्तर या पूर्व की ओर भूलकर भी उल्टा दर्पण न लगाएँ, अन्यथा कर्ज पर कर्ज होते चले जाएँगे। गलत दिशा में लगे दर्पण जबरदस्त वास्तुदोष के कारक होते हैं। सीढ़ियाँ कभी भी पूर्व या उत्तर की दीवार से न बनाएँ। सीढ़ियों का वजन दक्षिणी दीवार पर ही आना चाहिए। ऐसा न होने पर आय के लाभ के साधन खत्म हो जाते हैं। सीढ़ी हमेशा क्लाक वाइज दिशा में ही बढ़ाएँ। कर्ज से बचने के लिए उत्तर दिशा से दक्षिण की ओर बढ़ें। सीढ़ी की पहली पेड़ी मुख्य द्वार से दिखनी नहीं चाहिए, नहीं तो लक्ष्मी घर से बाहर चली जाती है।
जिस घर में उसके बीच कहीं भी तीन या तीन से अधिक दरवाजे हों उसके बीच में कभी भी न बैठें। नहीं तो ज्ञान में कमी आएगी एवं तिजोरी भी खाली हो जाएगी। यदि मुख्य द्वार या भवन पर पेड़, टेलीफोन, बिजली का खम्भा या अन्य किसी चीज की परछाई पड़ रही हो तो उसे तुरन्त दूर कर दें या पाकुआ दर्पण लगा लें।
-पाकुआ दर्पण का मुख घर से बाहर होना चाहिए।
मुख्य द्वार के पास एक और छोटा-सा द्वार लगाएँ, कर्ज से छुटकारा मिलेगा।
-कर्ज से छुटकारा पाने के लिए उत्तर या पूर्व दिशा की ओर एक या दो खिड़कियाँ बनवा लें। उन्हें ज्यादा खोलकर रखें। उत्तर-पूर्व भाग में निचले तल पर फर्श पर दर्पण रखकर उत्तरी-पूर्वी भाग की गहराई दिखाई जा सकती है।
इस प्रकार बिना तोड़फोड़ के फर्श में गहराई आ जाती है और लाभप्रद होता है।
-ईशान कोण में पूजास्थल के नीचे पत्थर का स्लैब न लगाएँ अन्यथा कर्ज के चंगुल में फँस जाएँगे। उत्तर-पूर्व के भाग में दीपक जलाना घातक सिद्ध हो सकता है। इस कोने में हवन करने से व्यापार में घाटा प्राप्त होता है तथा ऐसा करना कर्ज एवं मुसीबत को न्योता देने के समान है क्योंकि यह दिशा पानी की है।
पूजा घर के अग्निकोण में पूजा करें। उत्तर-पूर्व में लकड़ी का मन्दिर रखें जिसके नीचे गोल पाए हों। लकड़ी के मन्दिर को दीवार से सटाकर न रखें। जहाँ तक हो सके पत्थर की मूर्ति न रखें, वजन बढ़ेगा।
-घर में टूटे बर्तन व टूटी हुई खाट नहीं होनी चाहिए, न ही टूटे-फूटे बर्तनों में खाना खाएँ। इससे दरिद्रता बढ़ती है। घर के द्वार पर जो उत्तर दिशा की ओर हो वहाँ पर अष्टकोणीय आईना लगाएँ। घर विभिन्न प्रकार के विघ्नों से बचेगा।
सौजन्य से - डायमंड कॉमिक्स प्रकाशन लि.

Sunday, March 11, 2012

चेटीचंड : मन्नते मांगने का दिन


सिंधी समाज द्वारा चेटीचंड धूमधाम के साथ मनाया जाता है। वर्ष भर में जिनकी मन्नत पूरी हुई हो, वे आज के दिन भगवान झूलेलालजी का शुक्राना जरूर अदा करते हैं। साथ ही नई मन्नतों का सिलसिला भी इसी दिन से शुरू हो जाता है। 
इस दिन केवल मन्नत मांगना ही काफी नहीं, बल्कि भगवान झूलेलाल द्वारा बताए मार्ग पर चलने का भी प्रण लेना चाहिए। भगवान झूलेलाल ने दमनकारी मिर्ख बादशाह का दमन नहीं किया था, केवल मान-मर्दन किया था। यानी कि सिर्फ बुराई से नफरत करो, बुरे से नहीं। 
भगवान झूलेलाल जल के देवता हैं। जल बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। इसीलिए जल को सहेजने का संकल्प भी इस दिन लेना चाहिए। चेटीचंड के दिन प्रातः उठकर अपने बुजुर्गों एवं संतों के आशीर्वाद से दिन की शुरुआत होती है। 
वरूण देव के शुक्राने में 'कणा-सेसा' यानी शीरा प्रसाद वितरित किया जाता है। इसी दिन नवजात शिशुओं की झंड (मुंडन) भी नदी किनारे उतरवाई जाती है। हालांकि नदियों के प्रदूषित होने से यह परंपरा अब टिकाणों (मंदिरों) में होने लगी है।
भगवान झूलेलाल की शोभायात्रा में दूर-दराज के निवासी भी आते हैं। प्रत्येक सिंधी परिवार अपने घर पर पांच दीपक जलाकर और विद्युत सज्जा कर चेटीचंड को दीपावली की तरह मनाते हैं। 
प्रस्तुतिः कमल ईसरानी 

आज क्या करें कि दिन शुभ हो

यदि आप सप्ताह में कुछ खास कार्य करने जा रहे हैं तो निम्न उपायों के साथ अपने दिन की शुरूआत करें। इन उपायों के प्रभावों से आपके कार्य की सफलता के योग और मजबूत होंगे।
  सोमवार- आज के दिन सफलता प्राप्ति के लिए शिवलिंग पर कच्चा दूध चढ़ाएं। अगर यह संभव न हो तो कार्य के लिए घर से निकलने के पहले दूध या पानी पी लें। साथ ही ऊँ श्रां श्रीं श्रौं स: सोमाय नम: मंत्र बोल कर प्रस्थान करें। सफेद रूमाल साथ रखें। सफेफूशिचढ़ाएं। 
मंगलवार- आज हनुमान मंदिर जाएं। साथ ही हनुमानजी को बना हुआ पान और लाल फूल चढ़ाएं। घर से निकलने से पहले शहद का सेवन करें और ऊँ क्रां क्रीं क्रौं स: भौमाय नम: मंत्र बोल कर प्रस्थान करें। लाल वस्त्र पहनें या लाल कपड़ा साथ रखें। लाफूहनुमानजी कमंदिमेरखें। 
बुधवार- गणेशजी को दूर्वा अर्पित करें। गणपतिजी को गुड़-धनिया का भोग लगाएं। घर से सौंफ खा कर निकलें। ब्रां ब्रीं ब्रौं स: बुधाय नम: मंत्र का जप करें। हरे रंग के वस्त्र पहनें या हरा रूमाल साथ रखें। तुलसनीचगिरपत्तोउठाकधोकउनकसेवकरें। 
गुरुवार- भगवान विष्णु के मंदिर जाएं। श्रीहरि को पीले फूल अर्पित करें। साथ ही ऊँ ग्रां ग्रीं ग्रों स: गुरुवे नम:मंत्र का जप करें। पीले रंग की कोई मिठाई खाकर घर से निकलें। पीले वस्त्र पहनें या पीला रूमाल साथ रखें। पीलफूकिसमंदिर-दरगामेचढ़ाएं। 
शुक्रवार- सफलता के लिए लक्ष्मीजी को लाल फूल अर्पित करें। ऊँ द्रां द्रीं द्रौं स: शुक्राय नम: मंत्र का जप करें। घर से निकलने से पहले दही का सेवन करें। सफेद रंग की ड्रेस पहनें या सफेद रूमाल साथ रखें। सफेफूदेवमंदिमेचढ़ाएं। 
शनिवार- हनुमान मंदिर जाएं। हनुमानजी को बना हुआ पान और लाल फूल चढ़ाएं। ऊँ प्रां प्रीं प्रौं स: शनैश्चराय नम: मंत्र जप कर घर से निकलें। तिल का सेवन करें। नीले वस्त्र पहनें या नीला रूमाल साथ रखकर प्रस्थान करें। नीलजामुनी फशनि मंदिमेचढ़ाएं। 
रविवार- आज सूर्य देव को जल चढ़ाएं फिर लाल फूल चढ़ाएं। आज ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रौ स: सूर्याय नम: मंत्र जप करें। गुड़ का सेवन करें। लाल रंग की ड्रेस पहनें या लाल रूमाल रखें। लागुलाबफूसूर्यदेअर्पिकरें। 

आसान से वास्तु उपाय


यदि आपके घर का बजट गड़बड़ा गया हो, आप से ज्यादा खर्च होता है, परिवार में अशांति रहती है, नोट कमाने के सारे प्रयास व्यर्थ साबित हो रहे हों, तो भगवान को खुश करने के लिए पूजा कक्ष में लाल रंग का प्रयोग ज्यादा से ज्यादा करें।

जहां आप बटुआ रखते हों, उस स्थान को भी लाल व पीले कलर से रंग दें। कुछ ही दिनों में फर्क महसूस होगा। यदि आपको लगता है कि आपसे कोई ईर्ष्या करता है, आपके कई दुश्मन हो गए हैं। हमेशा असुरक्षा व भय के माहौल में जी रहे हों, तो मकान की दक्षिण दिशा में से जल के स्थान को हटा दें। इसके साथ ही एक लाल रंग की मोमबत्ती आग्नेय कोण में तथा एक लाल व पीली मोमबत्ती दक्षिण दिशा में नित्यप्रति जलाना शुरू कर दें।

घर में बेटी जवान है, उसकी शादी नहीं हो पा रही है, तो एक उपाय करें- कन्या के पलंग पर पीले रंग की चादर बिछाएं, उस पर कन्या को सोने के लिए कहें। इसके साथ ही बेडरूम की दीवारों पर हल्का रंग करें। ध्यान रहे कि कन्या का शयन कक्ष वायव्य कोण में स्थित होना चाहिए।

कभी-कभी ऐसा होता है कि व्यक्ति सर्वगुण सम्पन्न होते हुए भी बेरोजगार रह जाता है। वह नौकरी के लिए जितना अधिक प्रयास करता है, उसकी कोशिश विफल होती जाती है। इसके लिए व्यक्ति भाग्य को जिम्मेदार ठहराता है। लेकिन अपने भाग्य को कोसने के बजाय एक उपाय करें- नौकरी के लिए इंटरव्यू देने जाएं, तो जेब में लाल रूमाल या कोई लाल कपड़ा रखें। सम्भव हो, तो शर्ट भी लाल हनें। आप जितना अधिक लाल रंग का प्रयोग कर सकते हैं, करें।

लेकिन यह याद रखें कि लाल रंग भड़कीला ना लगे सौम्य लगे। रात में सोते समय शयन कक्ष में पीले रंग का प्रयोग करें। याद रखें, लाल, पीला व सुनहरा रंग आपके भाग्य में वृद्धि लाता है। अतः हमेशा अपने साथ रखें व इन रंगों का व्यवहार ज्यादा से ज्यादा करें, सफलता मिलेगी।

जीवन में पीले रंग को सफलता का सूचक कहा जाता है। पीला रंग भाग्य में वृद्धि लाता है। कन्या की शादी में पीले रंग का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग किया जाता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि कन्या ससुराल में सुखी रहेगी।

विवाह निर्विघ्न होने की शुभ सूचना वस्तुतः हल्दी से सम्पन्न होती है, क्योंकि हल्दी को गणेशजी की उपस्थिति माना जाता है। और जिस कार्य में गणेश जी स्वयं उपस्थित हों, उस कार्य को पूरा करने में विघ्न कैसे आ सकता है।

हल्दी की गांठों में कभी-कभी गणेश जी की मूर्ति का चित्र मिलता है। लक्ष्मी अन्नपूर्णा भी हरिद्रा कहलाती हैं। श्री सूक्त में वर्णन किया गया है कि लक्ष्मी जी पीत वस्त्र धारण किए है। अतः आप समझ सकते हैं कि हल्दी का कितना महत्व है। इतना ही नहीं, बृहस्पति का रंग भी पीत वर्ण का है, तभी तो पीत रंग का पुखराज पहनकर बृहस्पति की कृपा प्राप्त होती है।

मुहूर्त का महत्व


भारतीय संस्कृति में पंचांग, मुहूर्त का बहुत महत्व है। जो हमें किसी भी शुभ कार्य को शुरू करने से पहले बहुत सारी सावधानियां बरतने की सलाह भी देता है।

मुहूर्त के अंतर्गत कुछ विशेष प्रकार की सावधानियों का जिक्र किया गया है। जो निम्नानुसार है।

- रिक्ता तिथियों यानी चतुर्थी, नवमी एवं चतुदर्शी के दिन रोजगार संबंधी कोई भी नया काम नहीं शुरू करना चाहिए।

- शुभ एवं मांगलिक कार्य अमावस्या तिथि में शुरू नहीं करना चाहिए।

- रविवार, मंगलवार एवं शनिवार के दिन समझौता एवं संधि नहीं करनी चाहिए। दिन, तिथि व नक्षत्र का योग जिस दिन 13 आए उस दिन उत्सव का आयोजन नहीं करना चाहिए।

- नन्दा तिथियों एवं प्रतिपदा, षष्ठी और एकादशी तिथि के दिन नवीन योजना पर कार्य शुरू नहीं करना चाहिए।

- देवशयन काल में बच्चों को स्कूल में दाखिला नहीं दिलाना चाहिए।

- बुधवार के दिन उधार देना व मंगलवार को उधर लेना मुहूर्त की दृष्टि से शुभ नहीं माना गया है।

- नए वाहन खरीदते समय ध्यान रखना चाहिए कि आपकी राशि से चंद्रमा घात राशि पर मौजूद नहीं हो।

- कोई ग्रह जब उदय या अस्त हो तो उसके तीन दिन पहले और बाद में नया काम नहीं करना चाहिए।

- जन्म राशि और जन्म नक्षत्र का स्वामी जब अस्त, वक्री अथवा शत्रु ग्रहों के बीच हों तब आय एवं जीवन से जु़ड़े विषय को विस्तार नहीं देना चाहिए।

- मुहूर्त में क्षय तिथि का भी त्याग करना चाहिए।

- असफलता से बचने के लिए जन्म राशि से चौथी, आठवीं और बारहवीं राशि पर जब चंद्र हो उस समय नया काम शुरू नहीं करना चाहिए।