Saturday, May 21, 2011

अपनी कमजोरी अवश्य पकड़ें


सफलता का श्रेय स्वयं लेना और असफलता का दोष दूसरे पर मढऩा मनुष्य की आदत बन जाता है। क्योंकि श्रेय अहंकार को तृप्त करता है और दूसरों को दोष देने में ईष्र्या वृत्ति को मजा आता है, लेकिन याद रखें कुछ समय बाद दोनों के ही परिणाम में मन अप्रसन्न हो जाता है।

इसलिए जब भी हम असफल हों दूसरों में कारण न ढूंढते हुए खुद के भीतर उतरकर अपनी ही कोई कमजोरी अवश्य पकड़ें। असफलता को जितना स्वयं की कमजोरी से जोड़ेंगे अगली बार की सफलता के लिए रास्ता आसान बना देंगे और जितना दूसरों से जोड़ेंगे पुन: असफल होने की तैयारी कर रहे होंगे।

जैसे अच्छा स्वास्थ्य और बीमारी दोनों को ही संक्रमण माना गया है। यानी यह दोनों ही अपने साथ वालों में जल्दी से प्रवेश कर जाते हैं।

संक्रमण का अर्थ है अज्ञात आक्रमण। असफल होने पर यदि आप स्वयं में कारण ढूंढ रहे होते हैं तो आप दु:ख की तरंगों से मुक्त रहते हैं क्योंकि भीतर आपको एक एकांत मिलता है और वह एकांत आपकी सांसों में भी शांति का स्वाद भर देता है। आपसे मिलने वाला व्यक्ति उसी सांस को बाहर से महसूस करता है और काफी हद तक पी भी लेता है।

यदि हमारी सांस में अहंकार का स्वाद है, अशांति का झोंका है तो हमसे मिलने वाले लोग इसी को चखेंगे और हो सकता है वे हमसे दूर जाने का प्रयास करें। इसे कहते हैं व्यक्तित्व की तरंग। किसी के भीतर से निकल रही तरंग हमको तरोताजा बना देती है और किसी के पास लौटने पर लगता है हमें पूरा निचोड़ लिया गया है। अत: सफलता और असफलता पर अपने भीतर से जुड़कर बाहर की तरंगों को इतना स्वस्थ रखें कि हमसे मिलने वाला हर व्यक्ति यह कहे कि इनके पास बैठकर अच्छा ही लगता है, हालात चाहे जैसे भी हों।


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