Tuesday, April 26, 2011

अस्तेय और अपरिग्रह योग


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योग के प्रथम अंग ‍यम के तीसरे और पांचवें उपांग अस्तेय और अपरिग्रह का जीवन में अत्यधिक महत्व है। दोनों को ही साधने से व्यक्ति के व्यक्तित्व में निखार आ जाता है साथ ही वह शारीरिक और मानसिक रोग से स्वत: ही छूट जाता है।

वैज्ञानिक कहते हैं कि 70 प्रतिशत से अधिक रोग व्यक्ति की खराब मानसिकता के कारण होते हैं। योग भी मानता है कि रोगों की उत्पत्ति की शुरुआत मन और मस्तिष्क में ही होती है। यही जानकर योग सर्वप्रथम यम और नियम द्वारा व्यक्ति के मन और मस्तिष्क को ठीक करने की सलाह देता है।

(1) अस्तेय : इसे अचौर्य भी कहते हैं अर्थात चोरी की भावना नहीं रखना, न ही मन में चुराने का विचार लाना। किसी भी व्यक्ति की वस्तु या विचार को चोर कर स्वयं का बनाने या मानने से आपकी खुद की आइडेंटी समाप्त होती है और आप स्वयं अपुरुष कहलाते हैं।

धन, भूमि, संपत्ति, नारी, विद्या, विचार आदि किसी भी ऐसी वस्तु जिसे अपने पुरुषार्थ से अर्जित नहीं किया या किसी ने हमें भेंट या पुरस्कार में नहीं दिया, को लेने के विचार मात्र से ही अस्तेय खंडित होता है। इस भावना से चित्त में जो असर होता है उससे मानसिक प्रगति में बाधा उत्पन्न होती है और मन रोगग्रस्त हो जाता है जिसका हमें पता भी नहीं चलता।

(2) अपरिग्रह : इसे अनासक्ति भी कहते हैं अर्थात किसी भी विचार, वस्तु और व्यक्ति के प्रति मोह न रखना ही अपरिग्रह है। कुछ लोगों में संग्रह करने की प्रवृत्ति होती है, जिससे मन में भी व्यर्थ की बातें या चीजें संग्रहित होने लगती हैं। इससे मन में संकुचन पैदा होता है। इससे कृपणता या कंजूसी का जन्म होता है। आसक्ति से ही आदतों का जन्म भी होता है। मन, वचन और कर्म से इस प्रवृत्ति को त्यागना ही अपरिग्रही होना है।

दोनों के लाभ : यदि आपमें चोरी की भावना नहीं है तो आप स्वयं के विचार अर्जित करेंगे और स्वयं द्वारा अर्जित वस्तु को प्राप्त कर सच्चा संतोष और सुख पाएंगे। यह भाव कि सब कुछ मेरे कर्म द्वारा ही अर्जित है- आपमें आत्मविश्वास का विकास करता है। यह आत्मविश्वास अपको मानसिक रूप से सुदृढ़ बनाता है। मानसिक सुदृढ़ता ही अच्‍छी सेहत और सफलता का आधार है।

किसी भी विचार और वस्तु का संग्रह करने की प्रवृत्ति छोड़ने से व्यक्ति के शरीर से संकुचन हट जाता है जिसके कारण शरीर शांति को महसूस करता है। इससे मन खुला और शांत बनता है। छोड़ने और त्यागने की प्रवृत्ति के चलते मृत्युकाल में शरीर के किसी भी प्रकार के कष्ट नहीं होते। कितनी ही महान वस्तु हो या कितना ही महान विचार हो, लेकिन आपकी आत्मा से महान कुछ भी नहीं।

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